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यज्ञीय
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प्रसन्न ही हुए ( अर्थात् उनके भावों में विकार न हुआ ) 1, (१०) अन्न, पानी, वस्त्र अथवा अन्य किसी भी पदार्थ की इच्छा से नहीं किन्तु केवल विजयघोष का अज्ञान दूर करने के लिये ही उन मुनीश्वर ने ये वचन कहे :
(११) हे विप्र ! तुम वेद के मुख को, यज्ञो के मुख को, नक्षत्रों के मुख को तथा धर्मों के मुख को जानते ही नहीं हो । टिप्पणी- ' मुख' शब्द का आशय यहाँ 'रहस्य' है। यहां वेद, यज्ञ, नक्षत्र तथा धर्म इन धार का नामनिर्देश करने का कारण यह है कि विजयघोष ने ब्राह्मणों को इन चारों का जानकार होने का दावा किया था ।
(१२) अपनी तथा पर की आत्मा को ( इस भवसागर से ) पार करने में जो समर्थ हैं उनको भी तुम नहीं जानते । यदि जानते हो तो कहो ।
महातपस्वी तथा ओजस्वी मुनि के इन प्रभावशाली प्रश्नों को सुनकर ब्राह्मणों का सब समूह निरुत्तर होगया ।
(१३) मुनि के प्रश्न का ऊहापोह करके ( उत्तर देने में ) असमर्थ वह ब्राह्मण तथा वहां उपस्थित समस्त विप्रसमूह अपने दोनों हाथ जोड़कर उस महामुनि से इस प्रकार निवेदन करने लगे:
(१४) (तो) आपही वेदों का, यज्ञों का, नक्षत्रों का तथा धर्म का मुख बताओ ।
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(१५) अपनी तथा पर की आत्मा का उद्धार करने में जो समर्थ हैं वे कौन हैं ? ये सभी हमारी शंकाएं हैं तो हमसे ' हुए इन प्रश्नों का आप ही खुलासा करो ।