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यज्ञीय
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परन्तु संस्कृति दो प्रकार की होती है-एक कुलगत तथा दूसरी आत्मगत। कुलगत संस्कृति की छाप कई वार भूल में डाल देती है, वास्तविक रहस्य नहीं समझने देती और जीवात्मा को सत्य से दूर धकेल ले जाने में सहायक होती है किन्तु जिस जीवात्मा में आत्मगत संस्कृति का बल अधिक होता है वही आगे बढ़ती है, वही सत्य को प्राप्त होती है और वहां सम्प्रदाय, मत, वाद तथा दर्शन संबंधी झगड़े खड़े रह नहीं सकते।
जयघोष वेदो के धुरन्धर विद्वान थे। वेदमान्य यज्ञ करने का उन्हें व्यसनसा लगा था किन्तु उन यज्ञों द्वारा प्राप्त हुई पवि. चंता उन्हे क्षणिक मालूम पड़ी, यज्ञों के फलस्वरूप जिस स्वर्गमुक्ति की प्राप्ति का वर्णन वेद करते हैं वह प्राप्ति उन्हें इन यज्ञों द्वारा अस्वाभाविक, अलत्य जैसी मालूम पड़ी। आत्मगत' संस्कृति के बल से कुलगत संस्कृति के पटल उड़ गये । तत्क्षण ही उस वीर ब्राह्मण ने सच्चा ब्राह्मणत्व अंगीकार किया और सच्चे यज्ञ में चित्त देकर सच्ची पवित्रता प्राप्त की। ,
विजयघोष यज्ञशाला में कुलपरंपरागत यज्ञ करने में व्यस्त थे। उसी समय जयघोष याजक.वहां आ निकले, मानों पूर्व के प्रबल ऋणानुबन्ध ही उन्हे वहां खींच लाये थे! - जयघोष का त्याग, जयघोप की तपश्चर्या, जयघोष की साधुता, जयघोप का प्रभाव, तथा जयघोष की पवित्रता' आदि सदगुण देखकर अनेक वाण आकर्षित हुए और तब उनके द्वारा वे सच्चे यज्ञ का स्वरूप समके। इन दोनों के बहुत ही शिक्षापूर्ण संवाद से यह अध्ययन अलंकृत हुआ है।
भगवान बोले(१) पहिले बनारस नगरी में ब्राह्मण कुल में उत्पन्न होकर भी
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