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उत्तराध्ययन सूत्र
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(२३) संयमी को चाहिये कि वह ऐसे बचन न बोले जिससे
संरंभ, समारंभ, आरंभ में से एक भी क्रिया हो। वह
उपयोगपूर्वक ऐसे वचनों से बचे। (२४) ( सुधर्मास्वामी ने जंबूस्वामी से कहा:-हे जम्बू ! संक्षेप
में वचनगुप्ति का लक्षण मैंने कहा है) अब मैं काय-- गुप्ति का लक्षण कहता हूँ सो ध्यानपूर्वक सुनोः--कायगुप्ति के ५ प्रकार हैं:-(१) खड़े होने में, (२) बैठने में, (३) लेटने में, (४) नाली आदि को लांघने
में, तथा (५) पांचों इन्द्रियों की प्रवृत्तियों (व्यापारों) में(२५) यदि संरंभ, समारंभ, अथवा प्रारंभ में से कोई भी
क्रिया संपन्न हो जाती हो तो संयमी को उचित है कि वह अपनी काया को उपयोगपूर्वक रोक रक्खे और वह
काम न करे-इसे 'कायगुप्ति' कहते हैं। टिप्पणी-मन, वचन और काय की केवल आत्मलक्षी प्रवृत्ति ही हो
और उसका बाह्य व्यवहार में भी स्मरण रहे तथा पाप कर्मों से मन, वचन, काय की प्रवृत्तियां रुक जांय-ऐसी जब आत्मा की स्थिति हो जाय तभी मनोगुप्ति, वचनगुप्ति तथा कायगुप्ति की
सिद्धि हुई, ऐसा मानना चाहिये। (२६) उपरोक्त पांच समितियां चारित्र (संयमी जीवन ) विषयक
प्रवृत्तियों में अति उपयोगी है और तीनों गुप्तियां अशुभ
व्यापारो से सर्वथा निवृत्त होने में उपयोगी हैं।। (२७) इस प्रकार इन आठों प्रवचन माताओं को सच्चे हृदय , से समझ कर उनकी जो कोई उपासना करेगा वह बुद्धि
मान साधक मुनि शीत्र ही इस संसार के बंधनों से मुक्त हो जायगा ।