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________________ -समितियां २७५ ( २ ) असत्य मनोगुति, ( ३ ) सत्यमृषा ( मिश्र ) मनोगुप्ति, और ( ४ ) असत्याऽमृषा ( व्यवहार ) मनोगुप्ति । टिप्पणी- जहां सत्य की तरफ ही मन का वेग रहता है उसे सत्य मनोगुप्ति, जहां असत्य वस्तु की तरफ मन का झुकाव हो उसे असत्य मनोगुप्ति, कभी सत्य और कभी असत्य की तरफ मन के झुकाव को अथवा जहां सत्य में थोड़ा असत्य भी मिला हो और उसे सत्य मानकर चिन्तवन करना उसे मिश्र मनोगुप्ति, तथा संसार के शुभाशुभ व्यवहार में ही चित्त का लगा रहना उसे व्यवहार गुप्त कहते हैं । (२१) संरंभ, समारंभ, और आरंभ इन तीनों क्रिया में जाते हुए मन को रोक कर शुद्ध क्रिया में ही प्रवृत्ति करना यह मनोगुप्ति है इसलिये संयमी पुरुष को वैसी दूषित क्रियाओं में जाते हुए मन को रोक कर मनोगुप्ति की साधना करनी ही उचित है । टिप्पणी - संरंभ, समारंभ और आरम्भ ये तीनों हिंसक क्रियाएं हैं । प्रमादी जीवात्मा हिंसादि कार्य करने का जो संकल्प करता है उसे संरंभ कहते हैं और उस संकल्प की पूर्ति के लिये साधन सामान इकट्ठा करना या जुटाना उसे समारंभ कहते हैं और बाद में उन सब के द्वारा कोई काम करना उसे आरंभ कहते हैं। कार्य का विचार करने से लेकर उनको पूर्ण करने तक ये तीनों अवस्थायें क्रमशः होती हैं । (२२) वचनगुप्ति भी इन्हीं चार t प्रकार की है : - ( १ ) सत्य गुप्ति, ( ३ ) सत्यमृपा असत्या मृपा ( व्यव वचन गुप्ति, (२) असत्य वचन (मिश्र) वचन गुप्ति, और ( ४ ) हार वचत गप्ति ।
SR No.010553
Book TitleAgam 43 Mool 04 Uttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyachandra
PublisherSaubhagyachandra
Publication Year
Total Pages547
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size17 MB
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