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________________ समितियां २७१ (८) चलते समय पांच इन्द्रियों के विषयो तथा पांच प्रकार के स्वाध्यायों को छोड़कर मात्र चलने की क्रिया को ही मुख्यता देखकर और उसीमें ही उपयोग रखकर गमन करना चाहिये। टिप्पणी-स्पर्श, रूप, रस, गंध, वर्ण या किसी भी इन्द्रिय के विषय में मन के चले जाने से चलने में यथेष्ट ध्यान नहीं लग पाता और प्रमाद में जीवहिंसा हो जाने की सम्भावना है। इसी तरह चलते चलते वांचना (पढ़ना ) अथवा गहरा विचार करने से भी उपरोक्त दोप हो जाने की सम्भावना है। यद्यपि वाचन तथा मनन उत्तम क्रियाएं हैं किन्तु चलते समय उनको मुख्यता देने से “गमन उपयोग" का भंग होता है। इस उपदेश द्वारा भवान्तर रूप में समयानुसार कार्यनिष्ठ होने का उपदेश दिया है और जो समय जिस काम के लिये नियत है उसमें वही करने का विधान किया है। जैनदर्शन बहुत जोरों के साथ यह प्रतिपादन करता है कि प्रमाद ही पाप है और उपयोग यही धर्म है। ( उपयोग अर्थात् सावधान रहना)। (९) क्रोध, मान, माया, लोभ, हास्य, भय, निद्रा, तथा विकथः (अनुपयोगी कथा-वार्तालोप)(१०) इन आठों दोषों को बुद्धिमान साधक त्याग दे और उनसे रहित निर्दोष, परिमित, तथा उपयोगी भाषा ही बोले।' (इसे भाषा समिति कहते हैं )(११) आहार, अधिकरण (वन, पात्र, आदि साथ में रखने की वस्तुएं शय्या, (स्थानक, पाट या पाटला) इन तीन शोषने में, ग्रहण करने में अथवा उप
SR No.010553
Book TitleAgam 43 Mool 04 Uttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyachandra
PublisherSaubhagyachandra
Publication Year
Total Pages547
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size17 MB
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