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उसका बीज सहित नाश न होगा तब तक शुभ अथवा अशुभ रूप से 'परंपरागत परिणमन होता ही रहेगा और जब तक कर्म से सम्बन्ध रहता है तब तक उस जीवात्मा को भिन्न भिन्न स्थानों में योजित करने के निमित्त मिलते ही रहेंगे और इस तरह पुनरागमन का चक्र चलता ही रहेगा ।
मुमुक्षु तथा तत्वज्ञान के जिज्ञासु को चार बातें जानने की खास -जरूरत है । वे चार बातें ये हैं: - ( १ ) आत्मा का स्वरूप, (२) संसार का कारण, (३) जन्म-जन्मांतर का कारण, और (४) उसका निवारण इन चारों बातों का ज्ञान जो यथार्थ रीति से हो जाय तो उसे अपने ऐहिक जन्म की सफलता के साधन उपलब्ध होते हैं, यह बात दूसरी है कि इन साधनों को प्राप्त कर वह अपने जन्म को सफल बनाने के प्रयत्न में लगे या न लगे । परन्तु जगत समस्त के प्रत्येक महान धर्म संस्थापक तथा तत्त्ववेत्ता ने इन मुख्य वस्तुओं को दृष्टि के पृथक् सिद्धातों का प्रतिपादन किया है तथा प्रकार के कर्तव्य कर्मों का उपदेश किया है ।
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समीप रख कर ही पृथक् मुमुक्षुओं के लिये विविध
भगवान् महावीर के समय में वेद धर्म प्रचलित था यद्यपि उसके विधिविधानों में बहुत अधिक मात्रा में संकरता फैल गई थी । परन्तु इस धर्म के प्रचारकों तथा तत्त्र संशोधों को दृष्टि तो उपर्युक्त चार बातों ही की तरफ थी । एक स्मृति में यह लिखा है: - " किं कारणं ब्रह्म । -कुतः स्म जाता जीवामः केन क्व च सम्प्रतिष्ठिताः । केन सुखेतरेषु वर्तामह इति ॥
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अर्थात् - क्या इस विश्व का कारण ब्रह्म है ? (२) हम कहां से उत्पन्न हुए ? किससे हम जीवित हैं ? और कहां पर हम रह रहे हैं ? तथा (३) • दुःख-सुख में क्यों प्रवृत्त हैं ? - इन तीनों प्रश्नात्मक स्मृति वाक्यों में विश्व का कारण, भात्मा का स्वरूप (पहिचान), पूर्व जन्म - वर्तमान जन्मपुनर्जन्म का कारण और उसके निवारण के लिये सुख दुःख के कारण - संशोधन द्वारा कर्तव्य कर्म का विधान ये चारों ही प्रश्न समाविष्ट हैं । च्वेदधर्म ने इन चारों प्रश्नों का निराकरण किस तरह किया है और उसमें