SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 34
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कौनसी न्यूनता विशेषता है उसके सविस्तर विश्लेषण करने की आवश्यकता नहीं है । उसका विचार तो सूत्र ग्रन्थों में इतर महात्माओं के साथ जैन महात्माओं ने बड़ी अच्छी तरह से किया है। महावीर स्वामी के समकालीन बुद्ध ने भी इसी श्रेणी का अनुसरण कर मुमुक्षु धर्म का विधान किया है। जिस तरह तत्वविचारणा की दृष्टि' से जैनधर्म, एवं वेदधर्म में मतभेद, है उसी तरह बुद्ध के निर्णय तथा विधानों में भी मतभेद है। परन्तु यहां तो तत्वश्रेणी के साम्य पर ही हमें विचार करना है । ब्रह्म, आत्मा, पूर्व जन्म, पुनर्जन्म, और उसके कारण की. निवृत्ति की विचारणा अर्थात् इहलोक का कर्तव्य कर्म-ये सभी वात बुद्ध तत्वदर्शन की श्रेणियां हैं। (१-२) भगवान् , ब्रह्म तथा आत्मा के अस्तित्व को ही मानने से इन्कार करते हैं, अर्थात् विश्व को अनादि और आत्मा को अवास्तविक मानते हैं किन्तु (३) कर्म विपाक से नाम रूपारमक इस दारीर को नाशवन्त जगतमें पुनः पुनः जन्म धारण करने पड़ते हैं-ऐसा अवश्य मानते हैं, और (1) इन जन्मों के पुनरावर्तन का कारण समझ कर जिसके द्वारा इस कारण का नाश हो उस मार्ग को स्वीकार करने का भी विधान करते हैं । इन्हीं चारों बातों का निराकरण भगवान महावीर उत्तराध्ययन सूत्र में निस प्रकार से करते हैं तथा जो सारांग सामने उपस्थित करते हैं वह इस टपोदवात के पूर्वार्ध में इस सूत्र के ही प्रमाण देकर जो निष्कर्ष निकाल कर बताया है उसके ऊपर से देखा जा सकता है। भारत के प्राचीन तत्त्वज्ञान की उपर्युक्त तीन मुख्य शाखाओं में से जैनधर्म की शाखा मुग्न्य तत्वों के विपय में क्या निर्णय करती है उसके जानने के इच्छुक जैन तथा जनेतर महानुभावों को संतुष्ट करनेके समीचीन उद्देश्य से ही इस मुत्र को सब से पहिली पसंदगी देकर प्रकाशित किया है। मंगल प्रभात; ता०२२-१०-३४ । ... चातुर्मास निवास, संतवालशांति निवास, अहमदाबाद,,,J
SR No.010553
Book TitleAgam 43 Mool 04 Uttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyachandra
PublisherSaubhagyachandra
Publication Year
Total Pages547
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy