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मामला दिग्बाई दे रहा है। छोटे जन्नुओं को बड़े जन्तु, और उनसे बढ़े उनको ग्याकर अपना निर्वाध कर रहे हैं। और इस तरह स्वार्थों के पारपरिक हन्द-युद्ध मिन्न २ क्षेत्रों में भिन्न • रीति से चल रहे हैं। जहां की भी देखो, जबर्दस्त खेंचातान, छीनानपटी, मारामारी, काटाकार्टी आदि के भीषण संघर्षण चरने नज़र आते हैं। .
किन्तु जैनधर्म काता है कि "इन घाटा लड़ाइयों की अपेक्षा अन्दर छी लड़ाई लड़ी । बाह्य रढाइयों को वन्द करो, तुम्हारा सच्चा कल्याण, तुम्हारा सच्चा हित, तुम्हारा सच्चा साध्य यह सब कुछ तुम में ही है। बाहर तुम जिस वस्तु की शोध कर रहे हो वह बिलकुल मिथ्या है। अपने किसी भी सुख के लिये दूसरों पर अत्याचार हिंसा अथवा युद्ध करना आदि ममी व्यर्थ है" जैमा कि कहा भी है:
अप्पागामेव जुम्मादि किंत जुन्मण बज्मायो । अप्पागामेव अप्पागं, जदत्ता मुद्दमेहए ॥ १ ॥
तथा वर में याप्पा दंता, संजमेण तवेण या
माई परेहिं दम्मती बंाहिं वहहि य ॥ २ ॥ अर्थ:-( 1 ) बाहर के युद्धों से क्या होनेवाला है ? (कुछ भी भारमसिद्धि नहीं होती), इसलिये आन्तरिक युद्ध करो। आत्ता के संग्राम में ही मुग्व प्राप्त कर मकोगे।
(३) बाधा बंध अथवा बन्धन से दमित होने की अपेक्षा संयम तथा तप के द्वारा अपना आत्मदमन करना यही उत्तम है।
(2) कर्म के अचल कायदे से पुनर्जन्म का स्वीकार:, जद, माया अथवा कमाँ मेलित चैतन्य जिस २ प्रकार की क्रिया करता है उसका फल उसको स्वयं भोगना पड़ता है। जैनदर्शन कहता है:, "कदागा कम्मा न माक्स अस्थि ।। "किये हुप कर्मों को भोगे यिना छुटकारा नहीं मिल सकता।" कर्म का नियम ही पेसा है कि नत्र तक