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________________ २५८ इस (४०) इस संसार में बहुत से विचारे जीव से जकड़े हुए दिखाई देते हैं । मुनि ! तुम किस प्रकार बंधन से की तरह हलके होकर प्रतिबंध (बिना रुकावट ) विहार कर सकते हो ? रहित होकर वायु ( ४१ ) ( गौतम केशी मुनीश्वर को उत्तर देते हैं:- कि ) हे मुने ! शुद्ध उपायों से उन जालों (बंधनों ) को तोड़कर मैं बंधनरहित होकर वायु की तरह अप्रतिबंध रूप से विचरता हूँ । (४२) तब केशीमुनि ने गौतम से फिर प्रश्न किया: हे गौतम! वे बंधन कौन से है ? वे आप मुझे कहें। यह प्रश्न गौतम ने केशीमुनि को यह जवाब दिया:सुनकर (४३) हे महामुने ! राग, द्वेष, मोह, परिग्रह तथा स्त्री, कुटुम्बी जन, आदि पर जो श्रासक्ति भाव है वे ही तीव्र, गाढ़े और भयंकर स्नेहबन्धन हैं। इन बन्धनों को तोड़कर जैन शासन के न्यायानुसार रहकर मैं अपना विकास करत हूँ और निर्द्वद विहार करता हूँ । + (४४ ) यह उत्तर सुनकर केशीमुनि कहने लगे :- हे गौतम तुम्हारी बुद्धि उत्तम है । तुमने मेरा संदेह द कर दिया। अब मैं तुमसे दूसरा प्रश्न करता हूँ उ भी समाधान करो । उत्तराध्ययन सूत्र कर्मरूपी जाल परिस्थिति में हे Ve 1 (४५) हे गौतम! हृदय के गहरे भागरूपी जमीन में एक बेल उ और उस वेल में विप के समान जहरीले फल लगे उस वेल कालो नमुने 2011
SR No.010553
Book TitleAgam 43 Mool 04 Uttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyachandra
PublisherSaubhagyachandra
Publication Year
Total Pages547
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size17 MB
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