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केशिगौतमीय
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(३७) केशीमुनि ने गौतम से फिर प्रश्न किया:-हे महात्मन् !
वे शत्रु कौन से हैं सो कहो । केशीमुनि का यह प्रश्न
सुनकर गौतम ने इस प्रकार उसका उत्तर दियाः(३८) हे मुने! (मनकी दुष्ट प्रवृत्तिों में फंसा हुआ) एक
जीवात्मा यदि न जीता जाय तो वह अपना शत्रु है (क्योंकि आत्मा को न जीतने से कषायें उत्पन्न होतो
हैं) और इस शत्रु के कारण चार कषाएं और पांचों - इन्द्रियां भी अपनी शत्रु हो जाती हैं (अर्थात् पंचेन्द्रियों तथा कपाय से 'योग' होता है और यही योग कर्मबन्धन का तथा दुःखपरंपरा का कारण है)। इस तरह समस्त शत्रुपरंपरा को जैनशासन के न्यायानुसार जीत कर
मैं शान्तिपूर्वक विहार किया करता हूँ। टिप्पणी-क्रोध, मान, माया और लोभ ये चार कषायें कहलाती हैं।
इन चार के तरतम भाव से १६ भेद होते हैं । दुष्ट मन भी अपना शत्रु है। पांच इन्द्रियां भी असद्धेग होने से शत्रुरूप ही हैं। यद्यपि ये भात्मा के शत्रु हैं फिर भी इन सब का मूल कारण केवल एक है और वह है मात्मा की दुष्ट प्रवृत्ति । इसलिए एक दुष्टात्मा को जीत लेने से समस्त शत्रुपरंपरा स्वयमेव जीत ली जाती है। जैनशास्त्र
न्याय यह है कि बाह्य युद्ध की अपेक्षा आत्मयुद्ध करना अधिक तम है और क्षमा, दया, तपश्चर्या तथा त्याग ये ही युद्ध के शस्त्र Mall इन्हीं शस्त्रों द्वारा ही कर्मरूपी शत्रु मारे जाते हैं। हे गौतम ! तुम्हारी बुद्धि सुन्दर है। तुमने मेरो शंका
मबि मैं तुमसे एक