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केशिगौतमीय
(१६) शिष्य समुदाय सहित गौतमस्वामी को स्वयं आते हुए देख
कर केशीकुमार हर्ष में फूले न समाये और वे उनका प्रत्यंत प्रेमपूर्वक स्वागत करने लगे 1
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टिप्पणी - वेश तथा समाचरी भिन्न २ होने पर भी जहां पर संभोगसाम्प्रदायिक व्यवहार का भूत सवार न हुआ हो, जहां विशुद्ध प्रेम ( स्वामीवात्सल्य ) उछलता हो और सम्प्रदायजन्य कदाग्रह न हो वहां का वातावरण अत्यंत प्रेमाल तथा विषमताशून्य हो इसमें आश्चर्य ही क्या है ? अहा ! वे क्षण धन्य हैं, वे पलें सुफल हैं, वे समय अपूर्व, हैं जहां ऐसा सच्चा मिलन होता है ! संत-समागम का ऐसा एक ही क्षण करोड़ों जन्मों के पापसमूह को जलाकर भस्म कर देता है ।
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( १७ ) श्रमण गौतम भगवान को आते देखकर उत्साहपूर्वक उनके अनुरूप तथा प्रासुक ( चित्त शाली धान, व्रीहि, कौदरी तथा राल नामकी वनस्पति ) चार प्रकार के पराल ( सूखी घास) तथा पाँचवे डाभ तथा तृण के आसन ले लेकर केशीमुनि तथा उनके शिष्यसमुदाय ने गौतममुनि और उनके शिष्यसमुदाय को उन पर बिठाया ।
८) उस समय का दृश्य अनुपम दिखाई देता था । कुमार ■ केशीश्रमण तथा महायशस्वी गौतममुनि ये दोनों महापुरुष वहाँ बैठे हुए सूर्य तथा चंद्रमा के समान शोभित हो रहे थे ।
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