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केशिगौतमीय
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टिप्पणी-भगवान पार्श्वनाथ झा काल ऋजु तथा प्राज्ञ काल था । उस
समय के मनुष्य अति सरल तथा बुद्धिमान थे इसीलिये उस प्रकार की धर्मरचना प्रवर्तती थी। उस समय केवळ ४ महावत थे। साधु रंगीन मनोहर वस्त्र पहिनते थे क्योंकि सुन्दर वस्त्र परिधान में या जीर्ण वस्त्र परिधान में तो मुक्ति है नहीं, मुक्तितो निरासक्ति में है-ऐसी मान्यता के कारण वैसी प्रणालिका चालू हुई थी और उस दिन तक मौजूद थी । एक ही जैनधर्म को मानते हुए भी बाह्य क्रिया में इतना अधिक अन्तर क्यों ? उनको यह शंका होना स्वाभाविक थी। ये दोनों गणधर तो ज्ञानी थे, उनको इस वस्तु में कोई महत्त्व या निकृष्टत्व नहीं लगता था परन्तु शिष्यवर्ग को ऐसी शंका होना स्वाभाविक था। उसका समाधान करने के लिये परस्पर मिल कर समन्वय कर लेना--यह भी उन महापुरुषों की उदारता तथा
समयसूचकता का ही द्योतक है। १२) धर्म चार महाव्रत स्वरूप है, जैसा कि भगवान पार्श्वनाथ 1 ने कहा है अथवा पंच महाव्रत स्वरूप है, जैसा कि भग
वान महावीरने कहा है ? तो उस भेद का कारण क्या है ? ) तथा अल्पोपधि (श्वेत वस्त्र और वस्त्ररहित ) वाले साध
आचार में जो भगवान महावीर द्वारा प्ररूपित किया गया है तथा पचरंगी वस्त्र धारण करने के साधु आचार ।। में जो भगवान पार्श्वनाथ द्वारा प्ररूपित है, इन दोनों
प्रकार के आचारों में सच्चा साधु आचार कौनसा है ? इन दोनों में क्यों ऐसा अन्तर है ? जब इन दोनों का