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केशिगौतमीय
जाना जा सकता है। ये तीनों ज्ञान अशुद्ध भी हो सकते हैं.
और यदि ये अशुद्ध हो तो उनके नाम क्रमशः मति अज्ञान, श्रुत भज्ञान तथा विभंग ज्ञान (कुअवधिज्ञान ) होते हैं। मनःपर्यय यह केवल शुद्ध ज्ञान है और यह ज्ञान छठे से बारहवे गुणस्थानक वर्ती संयमी साधु को ही होता है । इस ज्ञान के द्वारा वह दूसरे के मन की बात यथावत् जान सकता है। सब से अधिक विशुद्ध केवल आत्मभानरूप जो ज्ञान होता है उसे 'केवलज्ञान' कहते है । यह ज्ञान घातिया कर्मों (ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय तथा अंतराय) के नाश होने पर ही प्रकट होता है और इस ज्ञान के धारक को 'केवली' (सर्वज्ञ) कहते हैं। ऐसे सर्वज्ञों को संसार में फिर दुबारा जन्म नहीं लेना पड़ता। ज्ञान के प्रकारों का विस्तृत वर्णन नंदीजी आदि सूत्रों में दिया है, जिन्हें देखना हो वे वहां देख लेवें ।
(४) उस श्रावस्तीनगरी में नगरमण्डल के बाहर तिन्दुक नामका
एक एकान्त (ध्यान धरने योग्य ) उद्यान था। वहां पवित्र तथा अचित्त घास की शय्या तथा आसनों की याचना कर उस विशुद्ध भूमि में उनने वास किया ।
) उस समय में वर्तमान उद्धारक तथा धर्मतीर्थ के संस्थापक जिनेश्वर भगवान वर्धमान समस्त संसार में सर्वज्ञ तरीके प्रसिद्ध हो चुके थे।
लोक में ज्ञान प्रद्योत से प्रकाशमान प्रदीप स्वरूप उन भग