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જીર
उत्तराध्ययन सूत्र
(४७) रथनेमि तब से मन, वचन और काय से सुसंयमी तथा सर्वोत्कृष्ट जितेन्द्रिय हो गये और आजीवन अपने व्रत में अखंड रूप से दृढ़ रहे और जब तक जिये तब तक अपने चारित्र धर्म को शोभित करते रहे ।
टिप्पणी- रानीमती का उपदेश उनके रोम रोम में व्याप्त होगया और वे अपने चारित्र धर्म में मेरु के समान भढोल अकंप स्थिर हुए | (४८) इस प्रकार अन्त में उप्र तपश्चर्या करके ये दोनों जीव (राजीमती तथा रथनेमि ) केवलज्ञानधारी हुए और सर्व कर्मों के बंधनों को तोड़ कर सर्वोत्तम गति - श्रर्थात् मोक्ष को प्राप्त हुए ।
(४९) जिस तरह उन पुरुप शिरोमणि रथनेमि ने अपने मन को विषयभोग से क्षणमात्र में हठा लिया वैसे ही विचक्षण तथा तत्त्वज्ञ पुरुष भी विपयभोगों से निवृत्त होकर परम पुरुपार्थ में संलग्न हों ।
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टिप्पणी- स्त्रीशक्ति कोमल है, उसकी गति मंद है, उसका ऐश्वर्यं भय/ से आक्रांत है, स्त्रीशक्ति का सूर्य लज्जा के बादलों से घिरा हुआ है - यह सब कुछ सच है, पर कब तक ? जब तक उपयुक्त अवस त आवे तबतक । अवसर के आते ही लज्जा के बादल बिखर जाते हैं, सहजसुलभ कोमलता प्रचंडता के रूप में पलट जाती है औ वह तेजस्वी सूर्य के समान चमचमाने जगत का सारा बल परास्त होता है । होकर उतर जाता है और अन्त में इसी
उस स
लगती है । पुरुषशक्ति का आवेश शक्ति की विजय होती है।
रथनेमि यद्यपि पूर्वजन्म के योगीश्वर थे, आरमध्यान में स
न्द्र
काल से रह
वाले थे, विव
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