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रथनेमीय
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(४५) जिस तरह ग्वाला गायों को चराता है किन्तु वह उनका
मालिक नहीं है, वह तो केवल अपनी लाठी का ही धनी है; और जैसे भंडारी भंडार में रक्खे हुए धन धान्य का मालिक नहीं है किन्तु केवल चाबीका ही धनी है वैसे ही यदि तुम भी विषयाभिलाषी बने रहोगे तो हे रथनेमि ! संयम पालने पर भी तुम चारित्र के नहीं किन्तु वेश मात्र के ही धनी रहोगे।।
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".., इसलिये हे रथनेमि ! क्रोध, मान, माया और लोभ । .को दबाकर अपनी पांचों इन्द्रियों को वश कर, अपनी
आत्मा को विषयभोगों से पीछे मोड़ो । : ' , (४१) ब्रह्मचारिणी उस साध्वी के इन आत्मस्पर्शी अर्थपर्ण वचनों
को सुनकर, जैसे अंकुश से हाथी वश में आता है वैसे ही रथनेमि शीघ्र ही वश में आगये और संयम धर्म में बराबर
स्थिर हुए। टेप्पणी-यहां हाथी का दृष्टांत दिया है तो रथनेमि को हाथी, राजी
मती को महावत तथा उनके उपदेश को अंकुश समझना चाहिये । रथनेमि का विकार क्षणमात्र में शांत होगया । आत्मभान जागृत होने पर उन्हें अपनी इस कृति पर घोर पश्चात्ताप भी हुआ। किन्तु जिस तरह आकाश में बादल आने से कुछ देर के लिये सूर्य ढंक जाता है किन्तु बाद में पुनः अपने प्रचंड ताप से चमकने लगता है "वैसे ही वे भी अपने संयम से दीप्त होने लगे। सच है, संयम का
प्रभाव क्या नहीं करता? .....धन्य है, वह जगज्जननी ब्रह्मचारिणी मैया ! मातृशक्ति के