SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 302
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ उत्तराभ्ययन सूत्र - - - - AAAMVAVNANHAVANAMA Nowww MURAL आत्मा को उन्नत बनाकर उनने उसी समय वस्त्रों को लेलिया और अपना शरीर ढंक लिया । (४०) अपनी प्रतिज्ञा तथा व्रत में बढ़ होकर तथा अपनी जाति, कुल, तथा शील का रक्षण करते हुए उस राजकन्या ने स्थनेमि को इस प्रकार उत्तर दिया:(४१) यदि कदाचिन् तू रूप में कामदेव भी होता, लीला ( हाव मात्र ) में नलकुबेर होता अथवा साक्षान् शक्रेन्द्र ही क्यों न होता तो भी मैं तेरी इच्छा नहीं करती। अगंधन कुल में उत्पन्न हुए सर्प प्रज्वलित अग्नि में जल कर मर जाना पसंद करते हैं किन्तु उगले हुए विप को पुनः पीना पसंद नहीं करते। (४२) हे अपयश के इच्छुक ! तुझे घिकार है कि तू वासनामय जीवन के लिये वमन किये हुए भोगों को पुनः भोगने की इच्छा करता है। ऐसे पतित जीवन की अपेक्षा तो तेरा मर जाना बहुत अच्छा है। (४३) मैं भोजकविष्णु की पौत्री तथा महाराज उग्रसेन की पुत्री हूं और तुम अधकधिष्णु के पौत्र तथा समुद्रविजय महाराज के पुत्र हो । देखो हम दोनों गंधनकुल के सर्प न बनें। हे संयमीश्वर ! निश्चल होकर संयम में स्थिर होगी। (४४) हे मुनि ! जिस किसी भी स्त्री को देखकर यदि तुम: तरह काममोहित हो जाया करोगे तो समुद्र के किनारे पर खड़ा हुआ हह नाम का वृक्ष जैसे हवा के एक ही, मका, पणी र गित - पडता है वैसे ही तुम्हारी आत्मा उ भमिका वासनाएं एकान्त - an
SR No.010553
Book TitleAgam 43 Mool 04 Uttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyachandra
PublisherSaubhagyachandra
Publication Year
Total Pages547
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy