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________________ 1 नेमीय २३९ तपस्वी रथनेमि केवल एक छोटे से निमित्त से क्षणभर में नीचे गिर पड़ता है ! उन संयमी को देख( जाने बिना, एक भय से ) उनकी देह गुह्यांगों को छिपा (३५) ( रथनेमि को देखते ही ) एकान्त में कर राजमती भयभीत होगई । मुनि के सामने नग्न होगई इस कांपने लगी और अपने दोनों हाथों से कर वे नीचे बैठ गई । टिप्पणी-वस्त्र दूर पर सूख रहे थे । स्थल भी एकान्त था । स्त्री० जातिसुलभ लज्जा तथा भय के आवेगों का द्वंद ( युद्ध ) चल रहा था । इस समय मर्कटबद्ध भासन से बैठ कर उनने दोनों हाथों से अपने गुह्य अङ्ग छिपा किये । (३६) उसी समय समुद्रविजय के अंगजात (पुत्र) राजकुमार रथनेमि राजीमति को भयभीत देखकर इस तरह बोले:-- (३७) हे सरले ! मैं रथनेमि हूँ । हे रूपवती ! हे मंजुभाषिणी ! मुझ से तुझे लेशमात्र भी दुःख नहीं पहुँचेगा । हे कोमलांग ! आप मुझे सेवन करो । (३८) यह मनुष्य भव दुर्लभ है, इसलिये चलो, हम दोनों भोगों / को भोगें । उनसे तृप्त होने के बाद, भुक्तभोगी होकर फिर हम दोनों जिनमार्ग का अनुसरण करेंगे ( संयम ग्रहण करेंगे ) | ( ३९ ) इस प्रकार संयम में कायर बने हुए तथा विकारों को AM जीतने के उद्योग में बिलकुल निष्फ देखकर राजीमती होश में आ ! उस मातृशक्ति के
SR No.010553
Book TitleAgam 43 Mool 04 Uttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyachandra
PublisherSaubhagyachandra
Publication Year
Total Pages547
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size17 MB
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