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उत्तराध्ययन सुत्र
स्वामी होने पर भी उनका मन उसमें श्रासक्त न था किन्तु कृष्ण महाराज के प्रति आग्रहवशात् उनकी सगाई उग्रसेन महाराज की रंभा के समान सुन्दरी पुत्री राजीमती के साथ की गई। __ भरपूर ठाठबाट से समस्त यादवकुल के साथ वे कुमार विवाह के लिये चले। रास्ते में चाड़े में बंद किये हुए पशुओं की पुकार सुनकर उनने अपने सारथी से पूंछा कि ये विचार क्या दुःखी हो रहे है ? सारथी ने कहाः-प्रभो! आपके विवाह में पाये हुए मेहमानों के भोजन के लिये ये बाड़े में बंद कर रक्खे गये है।
अरे, रे! मेरे विवाह के लिये यह घोर हिंसा! समझदार को सिफ इशारा ही काफ़ी होता है। सारथी के एक वाक्य ने राजकुमार के सामने 'मेरा, विवाह, ये दीन निर्दीप पशु, इन का वलिदान, आत्मा, प्रात्मा की शक्ति, संसार और उसके विपयों का परिणाम' आदि सभी का मूर्तिमंत चित्र उपस्थित कर दिया। एक क्षण में ही क्या से क्या हो गया! विवाह के हर्ष से प्रफुल्लित मुखारविंद वैराग्य के प्रोजस से कुम्हला गया। जिसकी किसी को भी कल्पना तक न थी वह सामने आकर खड़ा हो गया। राजकुमार विवाह किये बिना ही वहीं से लौट पड़े। कंकण, मौर श्रादि विवाह के चिन्ह रथ ही में छोड़ दिये और पूर्ण युवावस्था में ही राजपाट, भोगविलास आदि सब सांसारिक वैभवों को छोड़ कर वे महायोगी चनालये।
सा विचार, एक शुद्र घटना, कैसा अजव परिवर्तन भनु कभी ग
गाववक श्रात्मा एक छोटे से छोटा निमित्त
वहां से लोदय और पूर्ण कमवा