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________________ २२६ उत्तराध्ययन सूत्र (१६) मनुष्यों के तरह तरह के अभिप्राय होते हैं (इसलिये यदि कोई मेरी निदा करता है तो यह उसके मन की बात है, इसमें मेरी क्या बुराई है । ) इस प्रकार वह अपने मन को सान्त्वना दे । मनुष्य, पशु अथवा देव द्वारा किये गये उपगों को शांतिपूर्वक सहन करे । टिप्पणी- यह लोक रुचि तथा लोक मानस ( लोगों के जुड़े २ विचार ) को पहिचानने तथा समभाव से उसका समन्वय ( छानवोन ) करना योग्य बता घर त्यागी का कर्तव्य क्या है उसका इस प्रकार समुद्रपाल मुनि विहार किया निर्देश किया है। करते थे । (१) जब दुःसह्य परिषह आते हैं तब कायर साधक शिथिल हो जाते हैं किन्तु युद्धभूमि में सब से श्रागे रहने वाले हाथी की तरह वे भिक्षु ( समुद्रपाल मुनि ) कुछ भी खेदसि नहीं होते थे । (१८) उसी प्रकार से आदर्श संयमी ठंडी, गर्मी, दंशमशक, रोग आदि परिषद्दों को समभाव ( मनमें विकार लाये विना ) पूर्वक सहन करे और उन परिषदो को अपने पूर्वकमों का परिणाम जानकर उन्हें सहकर कर्मों का नाश करे । (१९) विचक्षण साधु हमेशा राग, द्वेष तथा मोह को छोड़ कर, से मेरु नहीं कांपता उसी तरह परिषहों " न हों ) किन्तु मन को वश में शान्ति से सह ले । - कभी कायर ही बने !, न करे किन्तु समुद्रपाल, ९
SR No.010553
Book TitleAgam 43 Mool 04 Uttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyachandra
PublisherSaubhagyachandra
Publication Year
Total Pages547
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size17 MB
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