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समुद्रपालीय
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रक्खे और जो २ कष्ट उस पर आवें उनको समभावपूर्वक सहन करे। सदा अखण्ड ब्रह्मचर्य तथा संयम से रहे। इन्द्रियों को अपने वश में रक्खे और पाप के योग (व्यापार ) को सर्वथा त्यागकर समाधिपूर्वक
भिक्षुधर्म में गमन करे। . . (१४) जिस समय में जो क्रिया करनी चाहिये, वही करे।
देशप्रदेश में विचरता रहे । कोई भी कार्य करने के पहिले अपनी शक्ति-अशक्ति का माप ले। यदि कोई उसे कठोर या असभ्य शब्द भी कहे तो भी वह सिंह के समान निडर रहे किन्तु बदले में असभ्य बनकर उसकी प्रतिक्रिया
न करे। टिप्पणी-किसी भी क्षेत्र में क्यों न हो, साधु को अपनी जीवनचर्या के
अनुसार ही आचरण रखना चाहिये। भिक्षा के समय स्वाध्याय करना अथवा स्वाध्याय के समय सो जाना इत्यादि प्रकार की
अकाल क्रियाएं न करे और सम्पूर्ण व्यवस्थित रहे। (१५) साधु का कर्तव्य है कि प्रिय अथवा अप्रिय जो कुछ भी
हो उससे तटस्थ रहे। यदि कष्ट आ पड़े तो उसकी उपेक्षा कर समभाव से उसे सह ले, और यही भावना रक्खे कि
जो कुछ होता है, अपने कर्मों के कारण ही होता है , , इसलिये कभी भी निरुत्साह न हो। अपनी निन्दा य
प्रशंसा की तरफ वह लक्ष्य न दे। टिप्पणी-साधु पूजा की कभी इच्छा न रक्खे और निन्दा को । लावे। केवल सत्य शोज - Ramam . .