________________
२२७
-द्रपालीय
मुनि की तरह सरल भाव धारण करे और राग से विरक्त होकर (ज्ञान, दर्शन तथा चारित्र द्वारा ) मोक्षमार्ग की उपासना करे । २१) साधु को यदि कभी संयम में अरुचि
अथवा श्रसंयम में
श्रासक्ति भाव से दूर शोक, ममता, तथा
रुचि पैदा हो तो उनको दूर करे । रहे और आत्मचिंतन में लीन रहे । परिग्रह की तृष्णा छोड़ कर समाधि की प्राप्ति कर परमार्थ पद में स्थिर हो ।
(२२) इस तरह समुद्रपाल योगीश्वर श्रात्मरक्षक तथा प्राणीरक्षक बनकर उपलेप रहित तथा परनिमित्तक ( दूसरों के निमित्त बनाये गये ) एकांत स्थानों में विचरते थे तथा विपुल यशस्वी महर्षियों ने जिस मार्ग का अनुसरण किया था उसीका वे भी अनुसरण करते थे । ऐसा करते हुए उनने उपसर्गों तथा परिषदों को शान्तिपूर्वक सहन किया ।
(२३) ऐसे यशस्वी तथा ज्ञानी समुद्रपाल महर्षि निरंतर ज्ञान मार्ग में आगे २ बढ़ते गये तथा उत्तम धर्म ( संयम धर्म ) का पालन कर अन्त में केवलज्ञान रूपी अनन्त लक्ष्मी के स्वामी हुए और चाकाशमंडल में जैसे सूर्य शोभित होता है वैसे हो इस महीमंडल में अपने आत्मप्रकाश से दीप्त होने लगे ।
(२४) पुण्य और पाप इन दोनों
शरीर के मोह से वे सब श्रवस्था को प्राप्त हुए और जाकर वे महामुनि समुद्रपाल
प्रकार के कर्मों को नाश कर प्रकार से छूट गये । शैलें इस संसार समुद् पुनरागमक्ति के
ताई