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________________ महा निर्मथीय २१७ (४८) शिरच्छेद करनेवाला शत्रुभी अपना वह अपकार नहीं करता जो स्वयं यह जीवात्मा कुमार्ग में जाकर कर डालता है । किन्तु जब यह कुमार्ग पर चलता है तब उसे अपनी कृति का ध्यान ही नहीं आता । जब मृत्यु आकर गला दबाती है तभी उसको अपना भूतकाल याद आता है और तब वहे बहुत पछताता है। टिप्पणी-पर उस समय का पश्चाताप 'भव पछिताये होय का, चिड़ियां चुग गई खेत,' की तरह व्यर्थ जाता है। (४९) ऐसे कुसाधु का सारा कष्टसहन (त्याग) भी व्यर्थ जाता है और उसका सारा पुरुषार्थ विपरीत ( उल्टा फल देनेवाला) होता है। जो भ्रष्टाचारी है उस को इस लोक या परलोक-उभय लोक-में थोड़ी सी भी शान्ति नहीं मिल सकती। वह (आंतरिक तथा बाह्य) दोनों प्रकार के कष्टों का भोग बन जाता है । (५०) जैसे भोग रस की लोलुप (मांस खानेवाली) पक्षिणी स्वयं दूसरे हिंसक पक्षी द्वारा पकड़ी जाकर खूब ही परिताप पाती है वैसे हो दुराचारी तथा स्वच्छंदी साधु जिने श्वर देवों के इस मार्ग की विराधना करके मरणांत में बहुत २ पश्चात्ताप करता है। (५१) ज्ञान तथा गुण से युक्त ऐसी इस मधुर शिक्षा को सुन ।' दूरदर्शी तथा बुद्धिमान साधक दुराचारियों के मन् । दूर से ही छोड़ कर महातपस्वी मुनीश्वरों है । गमन करे।
SR No.010553
Book TitleAgam 43 Mool 04 Uttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyachandra
PublisherSaubhagyachandra
Publication Year
Total Pages547
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size17 MB
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