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________________ २१६ उत्तराध्ययन सूत्र ANA ग्रहण करने से, तथा विधिरहित मंत्र जाप करने से जैसे स्वयं धारण करनेवाले का ही नाश हो जाता है वैसे ही विपयवासनाओं की आसक्ति से युक्त चारित्रधर्म अपने ग्रहण करनेवाले का ही नाश कर डालता है। टिप्पणी-जो वस्तु उन्नति पथ में ले जाती है वही भयोग्य या उल्टी रीति से प्रयुक्त होने पर अवनति के गड्ढे में भी डाल देती है । (४५) सामुद्रिक शास्त्र (लक्षण शास्त्र), स्वप्नविद्या, ज्योतिष तथा विविध कोतूहल (जादूगरी श्रादि) विद्याओं में अनुरक्त तथा हलकी विद्याओं को सीखकर उनके द्वारा श्राजीविका चलानेवाले कुसाधु को (अन्त समय) उसकी कुविद्याएं शरणभूत नहीं होती। टिप्पणी-बिया वही है जो आम विकास करे । जो अपना ही पतन ___फरे टले विद्या से कहा जाय ? (४६) वह वेशधारी कुशील साधु अपने अज्ञानरूपी अंधकार से सदा दुःखी होता है क्या चारित्रधर्म का घात कर इसी भव में अपमान भोगता है तथा परलोक में नरक या पशुगति में जाता है। (४७) जो साधु अग्नि की तरह सर्वभक्षी वनकर अपने निमित्त वनाई गई, मोल ली गई, अथवा केवल एक ही घर से प्राप्त सदोष भिक्षा ग्रहण किया करता है वह कुसाघु अपने पापों के कारण दुर्गति में जाता है। जी-जैन साधुको बहुत शुद्ध तथा निर्दोष भिक्षा ही लेने का विधान या है। मिक्षा के लिये टसे बहुत कठिन नियमों का पालन
SR No.010553
Book TitleAgam 43 Mool 04 Uttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyachandra
PublisherSaubhagyachandra
Publication Year
Total Pages547
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size17 MB
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