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महा निर्मंथीय -
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(५७) हे संयमिन् । आप के पूर्वाश्रम का वृत्तान्त आपको पुनः
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पुनः पूंछ कर, आपके ध्यान में भंग डालकर और भोग भोगने की योग्य सलाह देकर मैंने श्रापका जो अपराध किया है उसकी मैं आपसे पुनः क्षमा मांगता हूँ । (५८) राजाओं में सिंह के समान ऐसे राजकेशरी महाराजा श्रेणिक ने इस प्रकार परम भक्तिपूर्वक उस श्रमणसिंह की स्तुति की और तबसे वे विशुद्ध चित्तपूर्वक अपने अन्तःपुर की ( सब रानियों, तथा दासीदासों ) स्वजनों तथा सकल कुटुम्बो जनों सहित जैन धर्मानुयायी हुए ।
टिप्पणी - श्रेणिक महाराज पहिले बौद्धधर्मी थे किन्तु अनाथी मुनि के प्रबल प्रभाव से आकर्षित होकर वे जैन धर्मानुयायी बने थे ऐसी परंपरानुसार मान्यता है ।
(५९) मुनीश्वर के अमृतोपम इस समागम से उनका रोम रोम प्रफुल्लित हो गया । अन्त में अनाथी मुनि की प्रदक्षिणा देकर तथा शिरसा वंदन कर वे अपने स्थान को पधारे ।
(६०) तीन गुप्तियों से गुप्त, तथा तीन दंडों ( मन दंड, वचन दंड, तथा काय दंड ) से विरक्त, गुणों की खान, ऐसे अनाथी मुनि अनासक्त भाव से निर्द्वन्द पक्षी की तरह अप्रतिबंध विहारपूर्वक इस पृथ्वी पर सुख समाधि से विचरने लगे ।
टिप्पणी- साधुता में ही सनाथता है। आदर्श त्याग में ही सन्त में अनाथता है । भोगों का प्रसंग करने में -- वासना की परतन्त्रता में भी
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