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उत्तराध्ययन सूत्र
(५२) इस प्रकार ज्ञानपूर्वक चारित्र के गुणों से भरपूर साधक श्रेष्ट संयम का पालन कर निष्पाप हो जाते हैं तथा वे पूर्वसंचित कर्मों का नाश कर अन्त में सर्वोत्तम तथा अक्षय ऐसे मोक्ष सुख को प्राप्त होते हैं ।
(५३) इस प्रकार कर्मशत्रुओं के घोर शत्रु, दाँत, महातपस्वी, विपुल यशस्वी, चढ़ती, महामुनीश्वर अनाथी ने सच्चे निर्बंथ मुनिका महाश्रत नामक अध्ययन अति विस्तार से श्रेणिक महाराज को सुनाया ।
(५४) सनाथता के सच्चे अर्थ को सुनकर श्रेणिक महाराज अत्यंत सन्तुष्ट हुए और उनने दोनों हाथ जोड़कर कहाहे भगवन् ! आपने मुझे सच्ची अनाथता का स्वरूप बड़ी ही सुन्दरता के साथ समझा दिया ।
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(५५) हे महर्षि ० ! आपका मानव जन्म पाना धन्य है ! आपकी यह दिव्य कांति, दैदीप्यमान श्रोजस्, शान्त प्रभाव और उज्ज्वल सौम्यता धन्य है ! जिनेश्वर भगवान के सत्यमार्ग
में चलनेवाले सचमुच श्राप ही सनाथ तथा सबांधव हो । (५६) हे संयमिन्! अनाथ जीवों के तुम ही नाथ हो ! सव प्राणियों के आप ही रक्षक हो ! हे भाग्यवन्त महापुरुष !' मैं अपनी (अज्ञानता की ) आपसे क्षमा मांगता हूँ और साथ ही साथ आपके उपदेश का इच्छुक हूँ । शणी--संयमी पुरुष की आवश्यकताएं परिमित होने से अनेक जीवों उससे आराम पहुँचता है । वह स्वयं अभय होने से, सब कोई रह सकते हैं । सारांश यह है कि एक संयमी करोड़ों छता ता है ।