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उत्तराध्ययन सूत्र
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(३७) यह जीवात्मा ही सुख तथा दुःखों का कर्ता तथा भोक्ता
है और यह जीवात्मा ही (यदि सुमार्ग पर चले तो) अपना सबसे बड़ा मित्र है और (यदि कुमार्ग पर चले
तो ) स्वयं अपना सब से बड़ा शत्रु है ।। इस प्रकार अपनी पूर्वावस्था की प्रथम अनायता का
वर्णन कर अब दूसरे प्रकार की अनाथता बताते हैं। २८) राजन् ! बहुत से कायर पुरुप निग्रन्थ धर्म को अंगीकार
तो कर लेत है किन्तु उसका पालन नहीं कर सकते हैं। यह दूसरे प्रकार की अनायता है। हे नराधिप! इस बात
को तू बरावर शान्तचित्त होकर सुन । (३९) जो कोई पहिले पाँच महाव्रतों को ग्रहण कर, बाद में अपनी
असावधानता के कारण उनका यथोचित पालन नहीं करता और अपनी आत्मा का अनिग्रह (असंयम) कर रसादि स्वादों (विषयों) में आसक्त हो जाता है ऐसा भिन्नु राग तथा द्वेष रूपी संसार के वन्धनों का मूलो
च्छेदन नहीं कर सकता। प्पा-ज्या ( टीका ) का उद्देश्य आसक्ति के बीनों का उखा । दना है। किसी भी वस्नु को छोड़ देना सरल है किन्तु नत्सम्बन्धी
आसन्दि को दूर कर देना जरा टेढ़ी खीर है। इसलिये मुनि को ... सदेव हमका ही प्रयव करना चाहिये ।
) इया ( उपयोगपूर्वक गमनागमन, ) (२) मापा, (३) ऐपणा ( माजन, वस्त्र श्रादि ग्रहण करने की द ति), (४) भोजन, पात्र, कंबल, वस्त्रादि का उठाना