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महा निग्रंथीय
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ज्यों ज्यों रात्रि व्यतीत होती गई त्यों त्यों मेरी वह दारुण । वेदना भी क्षीण होती गई। (३४) उसके बाद प्रातःकाल तो मैं बिलकुल नीरोग होगया और
उक्त सभी सगे सम्बन्धियों की आज्ञा लेकर शांत, दांत,
तथा निरारम्भी होकर मैं संयमी बन गया। (३५) संयम धारण करने के बाद मैं अपने आपका तथा समस्त
त्रस (द्वीन्द्रियादिक ) जीवों तथा स्थावर (एकेन्द्रियादिक)
जीवों-सब का नाथ ( रक्षक) होगया। टिप्पणी-आसक्ति के बन्धन छूटने से अपनी आत्मा हटती है। इसी
आस्मिक स्वावलम्बन का अपर नाम सनाथता है। ऐसी सनाथता मिल जाने पर बाह्य सहायताओं की इच्छा ही नहीं रहती। जिस जीव को ऐसी सनाथता प्राप्त होती है वह जीवात्मा दूसरे जीवों का भी नाथ बन सकता है। बाह्य बन्धनों से किसी को छुड़ा देना इसीका नाम सच्ची रक्षा नहीं है किन्तु दुःखी प्राणियों को आन्तरिक धन्धन से छुढ़ाना इसी का नाम सधा स्वामित्व-सच्ची दया है। ऐसी सनाथता ही सच्ची सनाथता है इसके सिवाय की दूसरी बातें
सभी अनाथताएं ही हैं। (३६) हे राजन् ! क्योंकि यह आत्मा ही (आत्मा के लिये)
वैतरणी नदी तथा कूटशाल्मली वृक्ष के समान दुःखदायी है और वही कामधेनु तथा नन्दन वन के समान सुरु
दायी भी है । टिप्पणी-यह जीवात्मा अपने ही पाप कर्मों द्वारा नरक गा
अनन्त दुःख भोगता है और वही अपने ही सत्कर्मों द्वारा स्वर । के विविध दिव्य सुख भी भोगता है।