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महा निग्रंथीय
रखना, तथा कारणवशात् बची हुई (५) अधिक वस्तु का योग्य स्थान में त्याग-इन पांच समितियों का जो साधु पालन नहीं करता वह महावीर द्वारा प्ररूपित जैनधर्म के मार्ग में नहीं जा सकता-आराधना नहीं कर
सकता। (४१) जो बहुत समय तक साधुव्रत की क्रिया करके भी अपने
व्रत नियमों में अस्थिर हो जाता है तथा तपश्चर्या आदि अनुष्ठानों से भ्रष्ट हो जाता है, ऐसा साधु बहुत वर्षों तक (त्याग, संयम, केशलोंच तथा दूसरे) कष्टो द्वारा अपने शरीर को सुखाने पर भी संसारसागर के पार नहीं जा
सकता। (४२) वह पोली मुट्ठी अथवा छाप बिना के खोटे सिक्के की तरह
सार (मूल्य) रहित हो जाता है और वैडूर्यमणि के सामने जैसे काच का टुकड़ा निरर्थक (व्यर्थ) है वैसे ही ज्ञानीजनों के समीप वह निर्मूल्य हो जाता है (गुणवानों में उसका आदर नहीं होता)। जो इस (मनुष्य) जन्म मे रजोहरणादि मुनि के मात्र बाह्य चिन्ह रखता है तथा मात्र आजीविकाके लिये ही वेशधारी साधु बनता है, ऐसा मनुष्य त्यागी नहीं है और त्यागी न होते हुए भी अपने को पूँठगूंठ हो साधु कहलवाता
है। ऐसे कुसाधु को पीछे से बहुत काल तक (नरका . जन्मों की ) पीड़ा भोगनी पड़ती है। (४४) वालपुट ( ऐपा दारुण विष जिसको हथेली पर रखें . :
तालु फूट जाय) विष खाने से, उल्टो...