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के सिवाय इतर देशों में क्यों नहीं हुआ ? इसके अनेक कारण हैं जिनमें निम्न लिखित कारण भी हैं:
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( १ ) भगवान् महावीर ने भगवान् पार्श्वनाथ की परंपरा की अपेक्षा ras कठोर विधिविधानों की स्थापना की थी जिससे जैन धर्म के प्रचारकों में मुख्य श्रमणवर्ग भारतवर्ष के बाहर नहीं जा सका था ।
( २ ) प्रचार करने की अपेक्षा धर्म के संगठन पर तत्कालीन जैनसंस्कृति का विशेष लक्ष्य रहा होगा ।
इतना प्रसंगोचित विवेचन करने के बाद अब हम उत्तराध्ययन की विशेषता पर विचार करते हैं ।
जैन धर्म के विशिष्ट सिद्धान्त
( १ ) आत्मा का नित्यत्वः - आत्मा को परिणामी नित्य माननी चाहिये अर्थात् -- एकान्त कूटस्थ नित्य अथवा केवल अनित्य — नहीं माननी चाहिये ।
आत्मा अखंड नित्य होने पर भी कर्मवशात् उसका परिणमन तो हुआ ही करता है जैसा कि कहा भी है:
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नो इंदियगेज्मो श्रमुत्तमावा, श्रमुत्तभावावि न होइ निच्चो अज्झत्थहे निययस्स बघा,
संसारहेउ च वयंति बघ ।
अर्थात् आत्मा अमूर्तिक है और इसी कारण से वह बाह्य इन्द्रियों द्वारा प्रत्यक्ष देखी नहीं जा सकती, उसको छुई नहीं जा सकती । और वह अमूर्त होने से नित्य है किन्तु अज्ञानवशात् वह कर्मबंधनों में जकड़ी हुई है और वही बंधन तो यह संसार है ।
सांख्य दर्शन आत्मा को कूटस्थ नित्य मानता है और बौद्ध धर्म इसे एकांत अनित्य मानता है। गहरा विचार करने पर ये दोनों ही सिद्धांत,
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