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________________ ७ मामला दिखाई दे रहा है। छोटे जन्तुओं को बड़े जन्तु, और उनसे बड़े उनको खाकर अपना निर्वाह कर रहे है । और इस तरह स्वार्थी के पार - स्परिक इन्द्र-युद्ध भिन्न २ क्षेत्रों में भिन्न २ रीति से चल रहे हैं । जहाँ कहीं भी देखो, जबर्दस्त चातान, छीनाझपटी, मारामारी, काटाकाटी आदि के भीषण संघर्षण चलते नज़र आते हैं । किन्तु जैनधर्म कहता है कि "इन बाह्य लड़ाइयों की अपेक्षा अन्दर की लड़ाई लड़ो। बाह्य लड़ाइयों को बन्द करो, तुम्हारा सच्चा कल्याण, तुम्हारा सच्चा हित, तुम्हारा सच्चा साध्य यह सब कुछ तुम में ही है । बाहर तुम जिस वस्तु की शोध कर रहे हो वह बिलकुल मिथ्या है। अपने किसी भी सुख के लिये दूसरों पर अत्याचार हिंसा अथवा युद्ध करना आदि सभी व्यर्थ है" जैसा कि कहा भी है: श्रम्पारणमेव जुज्झाहि किंतु जुज्भेण वञ्त्री | अप्पाणमेव श्रप्पाणं, नइत्ता सुमेह ॥ १ ॥ तथा वर मे अप्पा देतो, संजमेण तवेण य । माह परेहिं दम्मतो बंधणेहिं वहेहि च ॥ २ ॥ अर्थः- ( १ ) बाहर के युद्धों से क्या होनेवाला है ? ( कुछ भी आत्मसिद्धि नहीं होती ), इसलिये आन्तरिक युद्ध करो। आत्मा केसंग्राम से ही सुख प्राप्त कर सकोगे । ( २ ) वाह्य बंध अथवा बन्धन से दमित होने की अपेक्षा संयम तथा तप के द्वारा अपना आत्मदमन करना यही उत्तम है । 1 ( ४ ) कर्म के अचल कायदे से पुनर्जन्म का स्वीकारः जढ़, माया अथवा कमों से लिप्स चैतन्य जिस २ प्रकार की क्रिया करता है उसका फल उसको स्वयं भोगना पढ़ता है। जैनदर्शन कहता है: "कड़ाए कम्माण न मोक्स अस्थि" "किये हुए कर्मों को भोगे बिना छुटकारा नहीं मिल सकता ।” कर्म का नियम ही ऐसा है कि जब तक f 4
SR No.010553
Book TitleAgam 43 Mool 04 Uttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyachandra
PublisherSaubhagyachandra
Publication Year
Total Pages547
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size17 MB
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