________________
महा निग्रंथीय
२१९
(१८) प्राचीन नगरों में सर्वोत्तम ऐसी कौशांबी नाम 'की एक
नगरी थी और वहां प्रभूतधनसंचय नाम के मेरे पिता
रहते थे। - .(१९) एक समय हे महाराज ! तरुण वय में मुझे यकायक
आंख की अतुल पीड़ा हुई और उस पीड़ा के कारण
तमाम शरीर को दाघज्वर लागू हो गया । (२०) जैसे ऋद्ध शत्रु शरीर के ममों पर अति तीक्ष्ण शस्त्रों से
घोर पीड़ा पहुँचाता है वैसी ही तीव्र वह आंख की पीड़ा थी। (२१) और उस दाघज्वर की दारुण पीड़ा इन्द्र के वज्र की तरह
मेरी कमर, मस्तक तथा हृदय को पीड़ित करती थी। (२२) उस समय वैद्यकशास्त्र में अति प्रवीण, जड़ीबूटी, मूल
तथा मंत्रविद्या में पारंगत, शास्त्रविचक्षण तथा औषधि (निदान) करने में अति दक्ष अनेक वैद्याचार्य मेरे
इलाज के लिये आये । (२३) चार उपायों से युक्त ऐसी प्रसिद्ध चिकित्सा उनने मेरी की
किन्तु वे महा सामथ्येवान वैद्य मुझे उस दुःख से छुड़ा
न सके-यही मेरी अनाथवा है। (२४) मेरे लिए पिताजी सब संपत्ति लुटा देने को तैयार थे
परन्तु वे भी मुझे दुःख से छुड़ाने में असमर्थ ही रहे
यही मेरी अनाथता है। (२५) वात्सल्य के समुद्र की सी मेरी माता मेरे दु.ख से ,
दुःखित-अति व्याकुल हो जाती थी, किन्तु उससे मेरा दुःख छूटा नहीं-यही मेरी अनाथता है। ।