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उत्तराध्ययन सूत्र
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होकर आप सुखपूर्वक हमारे पास रहो और भोगों
को भोगो। (१२) हे मगधेश्वर श्रेणिक ! तू स्वयं ही अनाथ है ! और जो
___ स्वयं ही अनाथ है वह दूसरों का नाथ कैसे हो सकता है ? (१३) मुनि के वचन सुनकर उस राजा को अति विस्मय हुआ ।
ऐसा वचन उसने कभी किसी से नहीं सुना था। इससे
उसे व्याकुलता तथा संशय दोनों ही हुए। टिप्पणी-उसको यह लगा कि यह योगी मेरी शक्ति, सामर्थ्य तथा,
सम्पत्ति नहीं जानता इसीसे ऐसा कहता है। (१४) श्रेणिक ने अपना परिचय देते हुए कहा-घोड़ों, हाथियों
तथा करोड़ों आदमियों, शहरों, नगरों (वाले अंगदेश तथा मगध देश) का मैं स्वामी हूँ। सुन्दर अन्तःपुर में में नरयोनि के सर्वोत्तम भोग भोगता हूँ। मेरी सत्ता
(अाना ) तथा ऐश्वर्य अजोड़ ( अनुपम ) हैं। (१५) इतनी विपुल मनवांछित संपत्ति होने पर भी मैं अनाथ ' कैसे हूँ ? हे भगवन् ! कहीं श्रापका कथन असत्य तो
नहीं है ? (१६) (मुनि ने कहाः--) ह पार्थिव ! तू' अनाथ या सनाथ के
परमार्थ को जान ही नहीं सका। हे राजन् ! तू अनाथ तथा सनाथ के भाव (असली रहस्य ) को विलकुल नहीं समझ सका (इसीसे तुझे संदेह हो रहा है)। हे महाराज ! अनाथ किसे कहते हैं ? मुझे अनाथता का, भान कहां और किस तरह हुआ और क्यों मैंने यह दीक्षा ली-यह सर्व वृत्तान्त तू स्वस्थचित्त होकर सुन ।