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मृगापुत्रीय
की आराधना करके, तीन लोक में प्रसिद्ध उत्तम गति
(मोक्ष) को लक्ष्य में रखकर(९८) तथा दुःख वर्धक, (चोर आदि ) भय के महान निमित्त
रूप तथा आसक्ति को बढ़ाने वाले धन के स्वरूप को बरावर पहिचान कर उसको त्याग करो तथा सच्चे सुख को लाने वाले, मुक्ति योग्य गुण को प्रकट करने वाले तथा
सर्वश्रेष्ठ धर्मरूपी जुए को धारण करो। टिप्पणी-सारा ही संसार दुःखमय है किन्तु यह संसार कहीं बाहर
नहीं है। नरक या पशु गति में नहीं है। यह संसार वो आत्मा के साथ जकढ़ा हुआ है। वासना ही संसार है-आसक्ति यही संसार है। इसी संसार से सुख दुःख पैदा होते हैं, पाले पोसे और बढ़ाये जाते हैं। बाहर के दूसरे शारीरिक कए, या अकस्मात आई हुई स्थिति का दुःख ये तो पतंगरंग जैसा क्षणिक है। दुःखानुभूति का होना या न होना उसका माधार वासना पर अवलंबित है। जिसने इस बात को जाना, विचारा, तथा अनुभव किया वे ही इस संसार के पार जाने का प्रयत्न कर सके हैं-ऐसा मानना चाहिये।
ऐसा मैं कहता हूँ:इस तरह 'मृगापुत्र संबंधी उन्नीसवां अध्ययन समाप्त हुआ।