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________________ ૨૦૪ उत्तराध्ययन सूत्र तुमको सुख मिले वही काम खुशी से करो। इस तरह माता-पिता की आज्ञा मिलने पर वे ( मृगापुत्र ) अलंकारादि सब उपाधियों के त्यागने को तत्पर हुए । (८५) पक्की श्राज्ञा लेने के लिये फिर मृगापुत्र ने कहा: हे माता पिता ! जो श्राप प्रसन्नचित्त से मुझे आज्ञा देते हों तो मैं अभी सब दुःखों से छुड़ानेवाले मृगधर्मी के समान संयम को ग्रहण करूँ । यह सुनकर मातापिता ने प्रसन्न चित्त से कहा :- हे प्यारे पुत्र ! यथेच्छ विचरो । में ( ८६ ) इस तरह बहुत प्रकार से माता पिता को समझाबुझाकर तथा उनकी श्राज्ञा प्राप्त करके, जैसे महान हाथी युद्ध शत्रुवख्तर को तोड़ डालता है उसी तरह उनके ममत्व का नाश किया । (८७) जैसे वस्त्र पर लगी हुई धूल को सब कोई झाड़ देता है वैसे ही उनने धनदौलत, वैभव, मित्र, 'स्त्री, पुत्र तथा कुटुम्बीजन श्रादि सभी को त्याग दिया और संयम भार ग्रहण कर विहार किया । (८८) पांच महाव्रत, पांच समिति, और तीन गुप्ति इनको ग्रहण कर आभ्यंतर ( प्रांतरिक ) तथा वाह्य तपश्चर्या में उद्यम करने लगे । " ८९) ममत्व, अहंकार, प्रासक्ति, तथा गर्व को छोड़कर त्रस तथा स्थावर जीवों पर अपनी आत्मा के समान ( आत्मवत् ). / करुणा भाव दिखाने लगे । टिं (२ तथा लाभालाभ में, सुख दुःख में, जीने मरने में, निंदा प्रशंसा में, तथा मानापमान में वे समदृष्टि बने ।
SR No.010553
Book TitleAgam 43 Mool 04 Uttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyachandra
PublisherSaubhagyachandra
Publication Year
Total Pages547
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size17 MB
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