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मृगापुत्रीय
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ही संयम तथा तपश्चर्या से मैं एकाकी (रागद्वेष रहित )
होकर चारित्र धर्म में सुख पूर्वक विचरूंगा। (७८) बड़े वन में एक बड़े वृक्ष के मूल में बैठे हुए मृग को
जब (पूर्वकर्मोदय से) रोग उत्पन्न होता है तब वहाँ
उसका इलाज कौन करता है ? (७९) वहां जाकर उसे कौन औषधि देता है ? उसके सुख दुःख
को चिन्ता कौन करता है ? कौन उसको भोजन पानी
लाकर खिलाता है ? टिप्पणी-जिसके पास अधिक साधन हैं उसीको सामान्य दुःख भति.
दुःख रूप मालम होते हैं । (८०) जब वह नीरोग होता है तब वह स्वयमेव वन में जाकर
सुन्दर घास तथा सरोवर ढूँढ़ लेता है। (८१) घास खाकर, सरोवर का पानी पीकर तथा मृगचर्या करके
फिर पीछे अपने निवास स्थान पर आजाता है। (८२) इसी तरह उद्यमवंत साधु एकाकी मृगचर्या करके फिर
ऊँची दिशा में गमन करता है। (८३) जैसे एक हो मृग अनेक जुदे २ स्थानों में रहता है इसी
तरह मुनि भी गोचरी ( भिक्षाचरी) में मृगचर्या की तरह भिन्न २ स्थानों में विचरे और सुन्दर भिक्षा मिले या :
मिले तो भी दाता का तिरस्कार या निंदा न करे। . (८४) इसलिये हे माता-पिता ! मैं भी उसी मृग की तर
(निरासक्त) चर्या करूंगा। इस प्रकार पुत्र का , , वैराग्यभाव देखकर माता-पिता के वात्सल्य से क
हृदय भी पिघल गये और उनने कहा:-हे पुत्र ! जिर