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उत्तराध्ययन सूत्र
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(१३) पानी के बुख़ुद के समान अस्थिर इस शरीर में मोड़
कैसा! वह अभी अथवा पीछे ( वाल, तरुण, वृद्धावस्था में कभी न कमी) अवश्य जाने वाला है तो मैं उस में
क्यों लुभाऊ ? (१४) (यह शरीर) पीडा तथा कुष्टादि रोगों का घर है, बुढापा
तथा मृत्यु से घिरा हुआ है। ऐसे असार तथा क्षणभंगुर मनुष्य के शरीर में अब मुझे क्षणमात्र के लिये भी रति
(आनन्द ) प्राप्त नहीं होता। (१५) अहो ! सचमुच यह सारा ही संसार अत्यन्त दुःखमय है।
इसमें रहने वाले विचारे प्राणी जन्म, जरा, रोग तथा
मरण के दुखों से पिसे जा रहे हैं। (१६) (हे मातापिता ) ! ये सब क्षेत्र, घर, सुवर्ण, पुत्र, स्त्री,
वन्धु वांधव तथा इस शरीर को भी छोड़ कर आगे पीछे कभी न कभी, पराधीन रूप में सब को अवश्य जाना
ही पड़ेगा। टिप्पणी-जीवात्मा यदि इन कामभोगों को नहीं छोड़ेगा तो ये काम
भोग ही कमी न कभी इसे छोड़ देंगे। नव छोड़ना निश्चित है तो क्यों न मैं उन्हें स्वेच्छापूर्वक छोड़ दूं? स्वेच्छा से छोड़े हुए काम
भोग दुःखद नहीं, किन्तु सुखद होते हैं। (१७) जैसे किंपाक फल का परिणाम अच्छा नहीं होता वैसे ही
भोगे हुए भोगो का फल सुन्दर नहीं होता। टिप्पणी-किंपाक वृक्ष का फल देखने में मनोहर तथा खाने में अति
मधुर होता है परन्तु खाने के बाद थोड़ी ही देर में उससे मृत्यु हो जाती है।