________________
मृगापुत्रीय
१९१
- wwwwwwwwwwww
* महान ऋद्धिवान मृगापुत्र पूर्व जन्मों का स्मरण करता है । उनको स्मरण करते करते उन भवों में धारण
किये साधुत्व का भी उसे स्मरण होता है। (९) साधुत्व की याद आने के बाद ( इन्हें ) चारित्र के प्रति
अत्यधिक प्रीति और विषयों से उतनी ही विरक्ति पैदा
हुई । इसलिये मातापिता के पास श्राकर वे इस प्रकार ___ वचन बोले । . (१०) हे मातापिता! पूर्व काल में मैंने पंच महाव्रत रूपी
मंयम धर्म का पालन किया था उसका मुझे स्मरण होरहा है और इस कारण नरक, पशु आदि अनेक गति के दुःखों से परिपूर्ण इस संसार समुद्र से निवृत होना
चाहता हूँ। इसलिये आप मुझे आज्ञा दो। मैं पवित्र - प्रव्रज्या (गृहत्याग) अंगीकार करूंगा। टिप्पणी-“पूर्वकाल में, पंचमहावत धारण" करने की बात कही है
इससे सिद्ध होता है कि प्रथम तीर्थंकर श्री ऋषभदेव के समय में
मृगापुत्र संयमी हुऐ होंगे। (११) हे मातापिता! अन्त में विष (किंपाक) फल की
तरह निरन्तर कडुए फल देने वाले तथा एकान्त दुःख की परम्परा से वेष्ठित ऐसे भोगों को मैंने (पूर्व काल तथा
इस जन्म में ) खूब खूब भोग लिया है। (१२) यह शरीर अशुचि (शुक्र वीर्यादि) से उत्पन्न होने से
केवल अपवित्र तथा अनित्य है (रोग, जरा, इत्यादि के) दुःख तथा क्लेशों का भाजन है तथा क्षणभंगुर है। * यह गाथा किसी किसी प्रति में अधिक पाई नाती है।