________________
१९०
उत्तराध्ययन सूत्र
( ६ ) मृगापुत्र एक टक में उस योगीश्वर को देखता रहा । देखते देखते उसको विचार आया कि कहीं न कहीं ऐसा स्वरूप (वेश ) मैंने पहिले कभी देखा है ।
( ७ ) साधुनी के दर्शन होने के बाद इस प्रकार चितवन करते हुए ( उसका ) शुभ अध्यवसाय ( मनोभाव ) जागृत हुआ और क्रम से मोहनीय भाव उपशांत ऐसे मृगापुत्र को तत्क्षण जाति स्मरण ज्ञान उत्पन्न हुआ ।
टिप्पणी-जैन दर्शन में प्रत्येक जीवात्मा आठ कर्मों से वेष्टित माना गया है और उन्हीं कर्मों का यह फल है कि इस आत्मा को जन्म मरण के दुःख भोगने पड़ रहे हैं । इन आठ कर्मों में मोहनीय कर्म सबसे अधिक क्रूर तथा बलवान है । इस को उत्कृष्ट स्थिति ७० कोठा कोठी सागरोपम है । इतनी स्थिति अन्य किसी भी कर्म की नहीं है । इस कर्म का जितने अंशों में क्षय अथवा उपशम होता जाता है उतनी ठवनी आत्माभिमुख प्रवृत्तियां घढ़ती जाती है । मृगापुत्र के मोहनीय कर्म के उपशम होने से उन्हें जाति स्मरण ज्ञान हुआ । जातिस्मरण होने में मोहनीय कर्म का क्षयोपशम होना अनिवार्य नहीं है। इस ज्ञान के होने से संज्ञी ( मन सहित ) पंचेंद्रिय जीव अपने पिछले ९०० भवों का स्मरण कर सकता है । जातिस्मरण ज्ञान मतिज्ञान का ही एक भेद है ।
( ८ ) संत्री ( मन सहित ) पंचेन्द्रिय का ही होने वाले ( जाति स्मरण ) ज्ञान के उत्पन्न होने से उसने अपने पूर्व भवों का स्मरण किया तो उसे मालूम हुआ कि वह देवयोनि में से चयकर मनुष्य भव में आया है ।