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________________ १८६ उत्तराध्ययन सूत्र ही उपरोक्त भरतादिक शूरवीरों तथा प्रवल पुरुषार्थी पुरुषों ने ज्ञान तथा क्रिया से युक्त जैनमार्ग को धारण किया था। (५३) संसार का मूल शोधने में समर्थ यह सत्यवाणी मैंने आप से कही है, उसे सुनकर आचरण में लाने से बहुत से महापुरुप ( इस संसार सागर को) तैर कर पार गये हैं; वर्तमान काल में ( तुम्हारे जैसे ऋषिराज) तर रहे है और भविष्य में अनेक भवसागर पार जायेंगे। टिप्पणी-इस तरह इन दोनों आत्मार्थी अणगारों का सत्संग संवाद समाप्त होता है और दोनों अपने २ स्थानों को विहार कर जाते हैं। (५४) धीरपुरुप संसार की निरर्थक वस्तुओं के लिये अपनी आत्मा को क्यों हने ? अर्थात् नहीं हने ऐसा जो कोई विवेक करता है वह सर्व संग (श्रासक्तियों) से मुक्त होकर त्यागी होता है और अन्त में निष्कर्मा होकर,सिद्ध होता है। टिप्पणी-चक्रवर्ती जैसे महाराजाओं में मनुष्य लोक की संपूर्ण शक्ति जितनी शक्ति तथा ऋद्धि होती है । भला उनके भोगों में क्या कमी हो सकती है ? फिर भी उनको पूर्ण तृप्ति तो नहीं हुई। सच्ची बात तो यह है कि तृप्ति भोगों में है ही नहीं, वह केवल वैराग्य में है। तृप्ति निरासति में है, तृप्ति निर्मोह दशा में है, इसीलिये ऐसे समर्थ तथा समृद्धिवान राजाओं ने वाह्य संपत्ति को छोड़कर आन्तरिक संपत्ति की प्राप्ति के लिये संयम मार्ग में गमन किया था। सुख का केवल एक ही मार्ग है; शान्ति से भेंटने की केवल एक ही श्रेणी है तथा सन्तोप का यह एक ही सोपान है। अनेक जीवारमाए भूलकर भटक कर, इधर उधर रखद कर अन्त में यहीं
SR No.010553
Book TitleAgam 43 Mool 04 Uttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyachandra
PublisherSaubhagyachandra
Publication Year
Total Pages547
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size17 MB
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