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उत्तराध्ययन सूत्र
(३३) उन नानी पुरुषों ने कहा है कि प्रक्रिया (नक्रिया) को
छोड़कर धीर साधक सत्यज्ञान सहित क्रिया को आचरे। तथा समष्टि से युक्त होकर कायर पुरुपों को कठिन लगने
वाले (एसे ) सद्धर्म में गमन करे। टिप्पी -सम्यग्दृष्टि जीव की दृष्टि बिलकुल सीधी होती है। वह किसी
के दोप नहीं देखता। मान सत्य का शोधक बनकर उसीका आचरण करता है। जैन दर्शन निस तरह जड़क्रिया (ज्ञानरहित क्रिया) को नहीं मानता उसी तरह शुकज्ञान (क्रिया रहित तोते के ज्ञान) को भी मुक्तिदाता नहीं मानता है। इसमें ज्ञान तथा चारित्र दोनों
ही की भावग्यकता स्वीकारी गई है। (३४) मोक्ष रूपी अर्थ तथा सद्धर्म से शोभित ऐसे पवित्र उपदेश
को सुनकर पूर्वकाल में भरत नामक चक्रवर्ती ने भी भरतक्षेत्र का राज्य तथा दिव्य भोगोपभोगों को छोड़कर चारित्रधर्म को अंगीकार किया था । पूर्व, पश्चम तथा दक्षिण दिशा में समुद्र पर्यन्त तथा उत्तर दिशा में चूल हिमवंत पर्वत तक जिसकी राज्यसीमा थी ऐसे सगर नामक दूसरे चक्रवर्ती समुद्र तक फल हुए भरतक्षेत्र के विशाल राज्य तथा सम्पूर्ण अधि
कार छोड़कर संयम अंगीकार कर मोक्षगामी हुए हैं। . (३६) अपूर्व ऋद्धिमान तथा महाकीर्तिवान ऐसे मघव नामक , तीसरे चक्रवर्ती भी भरतक्षेत्र का राज्य छोड़कर दीक्षा
लेकर अंतिम गति को प्राप्त हुए। (३७) महा ऋद्धिमान सनतकुमार नामक चौथे चक्रवर्ती ने भी