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वशात् दीक्षित होकर ) अब मैं अपनी तथा दूसरे की को बराबर जान सकता हूँ ।
आयु
संयतीय
टिप्पणी- संयति राजर्षि को वैसा विशुद्ध ज्ञान था कि जिसके द्वारा वे अपनी तथा दूसरे की आयु जान सकते थे ।
(३०) हे क्षत्रिय राजर्षि ! संयमी को भिन्न २ प्रकार की रुचियों स्वच्छन्दों का त्याग कर देना चाहिये और सभी कामभोग केवल अनर्थ के मूल हैं ऐसा जानकर ज्ञानमार्ग में गमन करना चाहिये ।
(३१) ऐसा जानकर दूषित ( निमितादि शास्त्रों द्वारा कहे जाते ) प्रश्नों से मैं निवृत्त हुआ हूँ । तथा गृहस्थों के साथ गुप्त रहस्यभरी बातें करने से भी विरक्त हुआ हूँ । अहा ! संसार के सच्चे त्यागी संयमी को दिनरात ज्ञानपूर्वक तपश्चर्या में ही संलग्न रहना चाहिये ।
टिप्पणी- इस तरह संयति राजर्षि ने बड़ी मधुरता से साधु का भाचरण वर्णन कर स्वयं तदनुसार पालन करते हैं इसकी प्रतीति देकर विनीत ( जैन शास्त्रानुसार श्रमण की व्याख्या ) कह सुनाई ।
यह सुनकर क्षत्रिय राजर्षि ने इस विषय में अपनी पूर्ण सम्मति प्रकट करते हुए हम दोनों एक ही जिनशासन के अनुयायी हैं ऐसी प्रतीति देकर कहा:
(३२) यदि मुझ से सच्चे तथा शुद्ध अंतःकरण से पूछो तो मैं तो यही कहूँगा कि जो तत्व तीर्थंकर देवों ने कहा है वही पूर्वज्ञान जिनशासन में प्रकाशित हो रहा है।