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________________ १८१ वशात् दीक्षित होकर ) अब मैं अपनी तथा दूसरे की को बराबर जान सकता हूँ । आयु संयतीय टिप्पणी- संयति राजर्षि को वैसा विशुद्ध ज्ञान था कि जिसके द्वारा वे अपनी तथा दूसरे की आयु जान सकते थे । (३०) हे क्षत्रिय राजर्षि ! संयमी को भिन्न २ प्रकार की रुचियों स्वच्छन्दों का त्याग कर देना चाहिये और सभी कामभोग केवल अनर्थ के मूल हैं ऐसा जानकर ज्ञानमार्ग में गमन करना चाहिये । (३१) ऐसा जानकर दूषित ( निमितादि शास्त्रों द्वारा कहे जाते ) प्रश्नों से मैं निवृत्त हुआ हूँ । तथा गृहस्थों के साथ गुप्त रहस्यभरी बातें करने से भी विरक्त हुआ हूँ । अहा ! संसार के सच्चे त्यागी संयमी को दिनरात ज्ञानपूर्वक तपश्चर्या में ही संलग्न रहना चाहिये । टिप्पणी- इस तरह संयति राजर्षि ने बड़ी मधुरता से साधु का भाचरण वर्णन कर स्वयं तदनुसार पालन करते हैं इसकी प्रतीति देकर विनीत ( जैन शास्त्रानुसार श्रमण की व्याख्या ) कह सुनाई । यह सुनकर क्षत्रिय राजर्षि ने इस विषय में अपनी पूर्ण सम्मति प्रकट करते हुए हम दोनों एक ही जिनशासन के अनुयायी हैं ऐसी प्रतीति देकर कहा: (३२) यदि मुझ से सच्चे तथा शुद्ध अंतःकरण से पूछो तो मैं तो यही कहूँगा कि जो तत्व तीर्थंकर देवों ने कहा है वही पूर्वज्ञान जिनशासन में प्रकाशित हो रहा है।
SR No.010553
Book TitleAgam 43 Mool 04 Uttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyachandra
PublisherSaubhagyachandra
Publication Year
Total Pages547
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size17 MB
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