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संयतीय
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टिप्पणी-ये रिश्तेदारियां ( सगे सम्बन्धी ), ज़िन्दगी तक ही
रहते हैं और यह मनुष्य जीवन केवल क्षणिक तथा परतन्त्र है तो उस क्षणिक सम्बन्ध के लिये जीवन हार जाना किसी भी प्रकार से
उचित नहीं है। (१५) जैसे पितृ-वियोग से अति दुःखी पुत्र; मृत पिता को घर के
बाहर निकाल देते हैं वैसे ही मृत पुत्रों के शरीर को पिता बाहर निकालता है। सब सगे सम्बन्धी ऐसा ही करते हैं। इसलिये हे राजन् ! तपश्चर्या तथा त्याग (अनासक्ति)
के मार्ग में गमन करो। टिप्पणी-जीव निकल जाने पर यह सुन्दर देह भी सड़ने लगती
है इसलिये प्रेमीजन भी उसको जल्दी बाहर निकाल कर चिता में
जला देते हैं। (१६) हे राजन् ! घरधणी (मालिक) के मरने पर उसके इकट्ठ
किये हुए धन तथा पाली पोसी गई स्त्रियों को कोई दूसरे ही भोगने लगते हैं तथा घरवाले लोग हर्ष तथा संतोष के साथ उस मरे हुए के आभूषणों को पहिर कर आनंद
करते हैं। टिप्पणी-मृत सम्बन्धी का दुःख थोड़े ही दिन तक सालता है क्योंकि
संसार का स्वभाव ही यह है कि स्वार्थ होने पर बहुत दिनों में और
स्वार्थ न होने पर थोड़े समय में ही उस दुःख को भूल जाते हैं। (१७) सगे संबंधी, धन, परिवार ये सब यहीं के यहीं रह जाते
हैं । केवल जीव के किये हुए शुभाशुभ कर्म हो साथ जाते हैं । उन शुभाशुभ कमों से वेष्टित जीवात्मा अकेला ही परभव में जाता है।
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