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संयतीय
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का ही होगा और हाय ! वह मुझसे मारा गया ! अब मेरा क्या होगा ? अथवा ऐसे दयासागर योगी के पास ऐसी घोर हिसा का काम मैंने कर डाला इससे उन्हे दुःख होगा इत्यादि प्रकार के विचार उस राजा के मन में उठते हैं) इससे भयभीत तथा शंकाग्रस्त वह राजा मन में अपने आप को धिक्कारता हुआ कि "मुझ मंदभागी, रसासक्त, और हिंसक ने सचमुच ही मुनि
राज को दुःख दिया" उस मुनिराज के पास आया। (८) घोड़े पर से उतर कर तथा उस को दूर बांध कर वह
उनके पास आया और बड़ी भक्तिपूर्वक उसने मुनिराज
के चरणों को वंदना की और अतिविनयपूर्वक कहने । लगा कि 'भगवन् , मेरे अपराध को क्षमा करो'। (९) परन्तु उस समय वे योगिराज ध्यानपूर्वक धर्मध्यान में लीन
थे इससे उनने उसे कुछ भी उत्तर न दिया । राजा उत्तर
न पाने से और भी भयभीत हो व्याकुल हो गया। टिप्पणी:-गुन्हेगार ( दापी) का हृदय स्वयमेव जलता रहता है।
उसके हृदय में भय तो पहिले ही से था, किन्तु योगीश्वर के मौन
ले वह और भी बढ गया। (१०) ( राजा अपना परिचय देते हुए बोला:-)हे भगवन् !
मैं संयति : (नामक राजा) हूँ। आप मुझ से कुछ भी बोलो क्योकि मुझे बहुत डर लग रहा है कि श्राप योगिराज कहीं क्रुद्ध होकर अपनी तेजोलेश्या से करोड़ों मनुष्यों को
भस्म न कर डालें! टिप्पणीः-तपस्वी तथा योगीपुरषों को अनेक प्रकार.की ऋद्धि सिद्धियां