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________________ पापश्रमणीय १७१ कुशील ) पांच प्रकार के कुशील के लक्षणों सहित ( दुराचारी ) तथा ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप और वीर्य इन पांच गुणों से रहित कुशील, केवल त्यागी का वेशधारी ऐसा पापीश्रमण, इस लोक में विष की तरह निंदनीय बनता है और इस लोक तथा परलोक दोनों में कभी सुखी नहीं होता । (२१) ऊपर के सब दोपों से जो सदा काल बचता है तथा मुनिसंघ में सच्चा सदाचारी होता है वही इस लोक में अमृत की तरह पूज्य बनता है । तथा ऐसा ही साधु इस लोक तथा परलोक दोनों को सिद्ध करता है । " टिप्पणीः- संयम लेने के बाद पदस्थ सम्बन्धी जवाबदारी बढ जाती है। चलने फिरने में खाने पीने में, उपयोगी साधन रखने में, विद्या प्राप्ति में, गुरुकुल के विनयनियम पालन में, अथवा अपना कर्तव्य समझने में, यदि थोड़ी सी भी भूल होती है तो उतने ही अंश में संयम दूषित होता है । अप्रमत्तता तथा विवेक को प्रतिक्षण सामने रखकर क्रोध, मान, माया, लोभ, विषय, मोह, असूया, ईर्ष्या आदि आत्मशत्रुओं पर विजय प्राप्त करते करते आगे २ बढ़ता जाय उसी को धर्मश्रमण कहते हैं । जो प्राप्त साधनों का दुरुप -- योग करता है अथवा प्रमादी बनता है, वह पापीश्रमण कहलाता है, इसलिये श्रमण साधक को खूब सावधान रहना चाहिये और समाधि की ही साधना करनी चाहिये । ऐसा मैं कहता हूँ नामक इस समाप्त हुआ । तरह 'पापी श्रमण' 'पापी श्रमण' १७ वां अध्याय
SR No.010553
Book TitleAgam 43 Mool 04 Uttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyachandra
PublisherSaubhagyachandra
Publication Year
Total Pages547
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size17 MB
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