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________________ उत्तराध्ययन सूत्र - - ANANJwwwvvvv - NAMAmar ६-६ महीने में एक संप्रदाय छोड़ कर दूसरे संप्रदाय में मिलता फिरता है तथा निंद्यचरित्र होता है वह पापी श्रमण कहलाता है। टिप्पणी-सम्प्रदाय अर्थात् गुरुकुल। साधक जिस गुरुकुल में रहकर अपनी साधना करता हो उसे किसी खास कारण के बिना छोड़ कर दूसरे संघमें मिलने वाला स्वच्छंदी साधु अन्तमें पतित हो जाता है। (१८) अपना घर ( गृहस्थाश्रम ) छोड़कर संयमी हुआ है फिर भी रसलोलुपी अथवा भोगी बनकर पर (गृहस्थों के ) घरों में फिरा करता है तथा ज्योतिप आदि विद्याओं द्वारा अपना जीवन चलाता है (ऐसा करना साधुत्व के विरुद्ध. है ) एसा साधु पापी श्रमण कहलाता है। (१९) भिक्षु होने के बाद तो उसे 'वसुधैव कुटुंबकम्' होना चाहिये, फिर भी सामुदानिक ( १२ कुल की) भिक्षा को ग्रहण न कर केवल अपनी जाति वाले घरों से ही भिक्षा ग्रहण करता है तथा कारण सिवाय गृहस्थ के यहां वारंवार वैठता है वह पापी श्रमण कहलाता है। टिप्पणी:-जिस कुल में अभक्ष्य (मांसादि) आहार होते हो तथा नीच भाचार विचार हो उसे ही वयं मानकर अन्यस्थलों से भिक्षा ग्रहण करना-ऐसी जैन मात्रकारों ने जैनी साधुओं को छूट दी है। गृहस्थ के यहां वृद्ध, रोगी या तपन्त्री साधु ही कारण वशात् बैठ सकता है इसके सिवाय अन्य कारण से नहीं, क्योंकि गृहस्थ के साथ अति परिचय करने से पतन तथा एक ही जाति का पिंढ लेने से बन्धन (आसक्ति) हो जाने की सम्भावना है। (२०) उपर्युक्त (पतित, रसलोलुपी, स्वच्छंदी, आसक्त और
SR No.010553
Book TitleAgam 43 Mool 04 Uttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyachandra
PublisherSaubhagyachandra
Publication Year
Total Pages547
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size17 MB
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