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________________ ब्रह्मचर्य समाधि के स्थान १६३ रक्षा करते हुए प्राप्त भिक्षा को भी भिक्षा ही के समय परिमाणपूर्वक ग्रहण करे। ब्रह्मचर्य के उपासक एवं तपस्वी भिक्षुओं को भी अधिक भोजन न करना चाहिये । टिप्पणी-भिक्षुभों का भोजन संयमी जीवन निभाने के लिये ही होना चाहिये। अति भोजन आलस्यादि दोषों को बढ़ाकर ब्रह्मचर्य (संयमी) जीवन से पतित कर देता है। (९) ब्रह्मचर्यानुरक्त भिक्षु को शरीररचना (शरीरशृङ्गार) छोड़ देना चाहिये । शृङ्गार की वृद्धि के लिये वह वस्त्रादि कोई भी वस्तु धारण न करे । टिप्पणी-नख या केश संवारमा अथवा शरीर की अनावश्यक टीपटाप करना, उसके लिये सतत लक्ष्य रखना, भादि सभी बातें ब्रह्मचर्य की दृष्टि से अनावश्यक हैं, इतना ही नहीं परन्तु वे शरीर की आसक्ति को अत्यधिक बढा देती हैं जिससे संयमी को अपने साधुत्व से गिर जाने को संभावना रहती है। (१०) स्पर्श, रस, गन्ध, वर्णं तथा शब्द इन पंचेंद्रियो के विषयों . की लोलुपता का त्याग कर देना चाहिये। . टिप्पणी-आसक्ति, यही दुःख है, यही बंधन है। यह वधन जिन २ वस्तुओं से पैदा हो उन सबका त्याग कर देना चाहिये। पांच इन्द्रियों को अपने वश में रखकर उनसे योग्य कार्य लेना चाहिये यही साधक के लिये आवश्यक है। शरीर से सत्कर्म करना, जीभ से मीठे शब्द भौर सत्य बोलना, कान से सत्पुरुषों के बचनामृतों का पान करना, आंखों से सग्रंथों का वाचन करना, मन से आत्म चिंतन करना-यही इन्द्रियों का संयम है। (११) सारांश यह है कि (१) स्त्रीजनों से युक्त स्थान, (२)
SR No.010553
Book TitleAgam 43 Mool 04 Uttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyachandra
PublisherSaubhagyachandra
Publication Year
Total Pages547
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size17 MB
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