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उत्तराध्ययन सूत्र
PRANAM
(३) पुनः पुनः वियों की शृंगारवर्द्धक कथा कहने (अथवा
वारंवार खियों के साथ कथावानो के प्रसंग लान) से अथवा वियों के साथ अति परिचय करने से ब्रह्मचर्य खंडित होता है। इसलिये ब्रह्मचर्य के प्रेमी साधु को उक्त
प्रकार के संगों का त्याग कर देना चाहिये। (४) ब्रह्मचर्य के अनुरागी साधु को वियों के मनोहर अंग
उपांगों को इरादा-पूर्वक वारंवार नहीं देखना चाहिये और उन्हें स्त्रियों के कटाक्ष अथवा उनके मधुर वचनों पर
आसक्त न होना चाहिये। (५) स्त्रियों के कोयल जैसे मधुर शब्द, नदन, गीत, हास्य, प्रेमी
के विरहजन्य क्रंदन (विलाप) अथवा रतिसमय के सीत्कार या शृंगारिक बातचीत को उसे ध्यानपूर्वक 'न सुनना चाहिये । यह सब कर्णेन्द्रिय के विषयों की प्रामक्ति
है । ब्रह्मचर्य के प्रेमी साधक को उन्हें त्याग देना चाहिये । (६) गृहस्थाश्रम ( असंयमी जीवन) में स्त्री के साथ जो २
हास्य, क्रीडा, रतिक्रीड़ा, विषय सेवन, शृङ्गार रसोत्पत्ति, मानदशा, बलात्कार, अभिसार, इच्छा विरुद्ध काम सेवन श्रादि पूर्व में जो २ विषय के सुखसेवन किये थे उनका भी
ब्रह्मचारी को पुनः २ स्मरण नहीं करना चाहिये । टिप्पणी:-पूर्व में भोगे हुए विषयों को स्मरण करने से विषयवासना
तथा कुसंकल्प पैदा होते हैं जो ब्रह्मचर्य के लिये महा हानिकर हैं। (७) ब्रह्मचर्यानुरक्त भिक्षु को विषयवर्द्धक पुष्टिकारक भोजनों
. का त्याग कर देना चाहिये । । । (८) भिक्षुसंयमी जीवन निभाने के लिये ही भिक्षुधर्म की