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... ब्रह्मचर्य समाधि के स्थान
जद संसर्ग से उत्पन्न (मोइ उत्पन्न प्राधिक मात्रा
रह्म (परमात्मा) के स्वरूप में चर्या करना अथवा
८ प्रात्म स्वरूप की पूर्ण रूप से प्राप्ति करना यह सभी का ध्येय है। अर्थात ब्रह्मचर्य की आवश्यकता यह जीवन की आवश्यकता के समान अनिवार्य है। अब्रह्मचर्य यह जड़ संसर्ग से उत्पन्न होने वाला विकार है। यह विकार जीवात्मा पर मोहनीय कर्म (मोह उत्पन्न करने वाली वासना) का जितना अधिक असर होगा उतनी ही अधिक मात्रा में, भयंकर सिद्ध होता है। संसार में यह जीवात्मा जितने अनर्थी आपत्तियों, तथा दुःखों का यनुभव करता है वह अपनी ही की हुई भूलों का परिणाम है। भूलों से बचने के लिये या प्रात्मशान्ति प्राप्त करने के लिये जो पुरुषार्थ करता है उसे 'साधक' कहते हैं। ऐसे साधक को अब्रह्मचर्य से निवृत्त होकर ब्रह्मचर्य में स्थिर होने के लिये उसे जितनी थान्तरिक सावधानी रखनी पड़ती है उतनी ही नहीं, उससे भी बहुत अधिक सावधानी उसे बाह्य निमित्तों से रखनी पड़ती है। ऊंची से ऊंची कोटि के साधु को भी, निमित्त मिलने पर, वीजरूप में रही