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________________ स भिक्खू १४९ - 7 ) - सदाचारी, तपस्वी, ज्ञानवान; क्रियावान, तया आत्मदर्शन • का जो शोधक है,वही सच्चा साधु है।' (६) जिन कार्यों से संयमी जीवन को क्षति हो ऐसे काम न 'करने वाला, समस्त प्रकार के भेदों को दबाने वाला तथा नरनारी के मोह को बढ़ाने वाले संग को छोड़ तपस्वी होकर विचरने वाला तथा तमाशा जैसी वस्तुओं में रस न लेने वाला ही सच्चा साधु है। . टिप्पसी-इस श्लोक का अर्थ यह भी हो सकता है कि जो नरनारी (स्वजन समूह अथवा कुटुम्ब कबीला) का ( पूर्व परिचय होने से) मोह उत्पन्न हो और संयमी जीवन दूषित हो ऐसा संग छोड़ कर तपस्वी बनकर बिहार करने वाला और तमाशों में रस न लेने वाला ही साधु है। (७) नख, वस्त्र, तथा दाँत आदि छेदने की क्रिया, राग (स्वर भेद ) विद्या, सम्बन्धी भू ( (पृथ्वी) विद्या. खगोल विद्या ( आकाशीय ग्रह नक्षत्र सम्बन्धी विद्या ), स्वप्न विद्या (स्वप्नफलादेश), सामुद्र ( शारीरिक लक्षणों द्वारा सुख दुःख बताना ) शास्त्र, अंगस्फुरण विद्या (अमुक अंग के लहकने से अमुक फल होता है, जैसे दाहिनी आँख का लहकना शुभ और बाई आँख का अशुभ, माना जाता है), दंड विद्या, पृथ्वी में गड़े हुए धन को जानने की विद्या, पशु-पक्षियों की बोली का जानना आदि, कुत्सित विद्याओं द्वारा जो अपना संयमी जीवन दूषित नहीं बनाता (अपना स्वार्थ साधन नहीं करता) वहो साधु है। ६८) मंत्र, जड़ीबूटो तथा जुदी २ तरह मैमक उपचारों को
SR No.010553
Book TitleAgam 43 Mool 04 Uttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyachandra
PublisherSaubhagyachandra
Publication Year
Total Pages547
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size17 MB
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