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उत्तराध्ययन सूत्र
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कर, सरलस्वभाव धारण कर, चारित्र धर्म में चले एवं जो कामभोगों की इच्छा न करे और पूर्वाश्रमो के संबंधियों की आसक्ति को छोड़ दे; ( तथा) अनात (अपरिचित) घरों में ही भिक्षाचरी करके आनन्दपूर्वक संयमधर्म में
गमन करे वही साधु है। टिप्पणी:-अज्ञात अर्थात् 'आज हमारे यहां साधुजी पधारने वाले हैं
इसलिए भोजन कर रक्खें'-ऐसा न जानने वाले घर । (२) उत्तम भिक्षु; राग से निवृत्त होकर, पतन से अपनी आत्मा
को बचा कर, असंयम से दूर होकर, परिपहों को सहन कर और समस्त जीवों को आत्म तुल्य जानकर किसी भी
वस्तु में मूर्छित ( मोहित ) न हो, वहीं साधु है। (३) यदि कोई उसे कठोर वचन कहे या मारे तो उसे अपने
पूर्व संचित कर्मों का फल जानकर धैर्य धारण करनेवाला, प्रशस्त (ऊँचे लक्ष्यवाला), आत्मा को हमेशा गुप्त (वश) में रखनेवाला और अपने चित्त को अव्याकुल रख हर्प शोक से रहित होकर संयम के पालन में आने वाले कष्टों
को सह लेता है वही साधु है। (४) जो अल्प तथा जीर्ण शय्या और आसन से सन्तुष्ट रहता
है; शीत, उष्ण, दंशनाशक, आदि के कष्टों को जो
समभाव से सहन करता है वही साधु है। (५) जो सत्कार या पूजा की लालसा नहीं रखता है, यदि कोई
• उस प्रणाम करे अथवा उसके गुण - की प्रशंसा करे, 'तरे २. "भी अभिमान मान में नहीं लाता 'ऐसा संयमी,